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शनिवार, 30 सितंबर 2017

छुपाकर गुलाब रखता है....श्वेता सिन्हा

टूटकर भी वही जलवा ए शबाब रखता है
दिल धड़कनो में छुपाकर गुलाब रखता है

खत्म नही होगा इनके सवालो का सिलसिला
वक्त पे छोड़ दो वही वाजिब हिसाब रखता है

फडफड़ाते है जब भी तेरे यादों के हसीन पन्ने
लफ्ज़ बोलते है जेहन कोई किताब रखता है

गिनकर रखना पड़ता है तेरी बेरूखी के लम्हे
किस पल माँग बैठे वो बेहतर हिसाब रखता है

इतनी बार बिखरा फिर भी सजाना नही छोड़ता
रात का बहाना करके आँख नये ख्वाब रखता है

         #श्वेता🍁

शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

हद से ज्यादा भी प्यार मत करना - कमर एजाज़

हद से ज्यादा भी प्यार मत करना
दिल हर एक पे निसार मत करना 

क्या खबर किस जगह पे रुक जाये
सास का एतबार मत करना

आईने की नज़र न लग जाये
इस तरह से श्रृंगार मत करना

तीर तेरी तरफ ही आएगा
तू हवा में शिकार मत करना

डूब जाने का जिसमे खतरा है
ऐसे दरिया को पार मत करना

देख तौबा का दर खुला है अभी
कल का तू इंतज़ार मत करना

मुझको खंज़र ने ये कहाँ है एजाज़ 
तू अँधेरे में वार मत करना - 

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

कलियों का मुस्कुराना....अज्ञात


आता है याद मुझको गुज़रा हुआ ज़माना;
वो बाग़ की बहारें, वो सब का चह-चहाना;

आज़ादियाँ कहाँ वो, अब अपने घोसले की;
अपनी ख़ुशी से आना अपनी ख़ुशी से जाना;

लगती हो चोट दिल पर, आता है याद जिस दम;
शबनम के आँसुओं पर कलियों का मुस्कुराना;

वो प्यारी-प्यारी सूरत, वो कामिनी-सी मूरत;
आबाद जिस के दम से था मेरा आशियाना।
-श़ायर अज्ञात

बुधवार, 27 सितंबर 2017

सोचती हूँ....श्वेता सिन्हा

चित्र साभार-गूगल

सोचती हूँ किसको कहूँ
पत्थर यहाँ भगवान,
तुझको पत्थर कहते हुये
है बुत बना इंसान।

हृदय संवेदनहीन है
न धरम कोई न दीन है,
बिक रहा बाज़ार में
है फर्ज़ और ईमान,
सोचती हूँ किसको कहूँ
पत्थर यहाँ भगवान।

न ढक पाए मनु लाज है
जन दाने को मोहताज है,
स्वर्गभूमि मेरी यही यहाँ 
करो न नर्क का आह्वान,
सोचती हूँ.किसको कहूँ
पत्थर यहाँ भगवान।

क्या तमाशा देखते हो
आँखें अपनी सेंकते हो,
कठपुतलियों में प्राण भर
न खेलो हे, सर्वशक्तिमान,
सोचती हूँ किसको कहूँ
पत्थर यहाँ भगवान।

माटी की शुचि काया रचा
देवत्व भी भर दो प्रभु,
हिय स्वच्छ कर दो प्रभु
अब ऐसा करो निर्माण,
न सोचूँ फिर किसको कहूँ
पत्थर यहाँ भगवान।

   #श्वेता🍁

मंगलवार, 26 सितंबर 2017

सियासत.........अमित जैन 'मौलिक'


पत्थर दिल में इश्क़ की चाहत, धीरे धीरे आती है। 
शाम ढले ख़्वाबों की आहट, धीरे धीरे आती है।

नया नवेला इश्क़ किया है, तुम भी नाज़ उठाओगे
रंज-तंज़ फ़रियाद शिक़ायत, धीरे धीरे आती है।

तुम तो आओ सब आयेंगे, चांद सितारे तितली फूल
ज़ीनत मस्ती ज़िया शरारत, धीरे धीरे आती है।

ज़हर ख़ुरानी दाँव पेंच सब, लोग सिखाने आयेंगे
अगुआई कर हुनर सियासत, धीरे धीरे आती है।

यार बनाया है ना तूने, साँझे में इक सौदा कर
खुदगर्ज़ी इमकाने अदावत, धीरे धीरे आती है। 

चार अज़ानें पूरी करके, फ़ेहरिश्त भी पढ़ आये?
फ़ज़ल खुदाई मेहर इनायत, धीरे धीरे आती है। 
-अमित जैन 'मौलिक'

सोमवार, 25 सितंबर 2017

तुम अपनी हो, जग अपना है ...............भगवतीचरण वर्मा

1903-1981

तुम अपनी हो, जग अपना है
 किसका किस पर अधिकार प्रिये
 फिर दुविधा का क्या काम यहाँ
 इस पार या कि उस पार प्रिये ।

 देखो वियोग की शिशिर रात
 आँसू का हिमजल छोड़ चली
 ज्योत्स्ना की वह ठण्डी उसाँस
 दिन का रक्तांचल छोड़ चली ।

 चलना है सबको छोड़ यहाँ
 अपने सुख-दुख का भार प्रिये,
करना है कर लो आज उसे
 कल पर किसका अधिकार प्रिये ।

 है आज शीत से झुलस रहे
 ये कोमल अरुण कपोल प्रिये
 अभिलाषा की मादकता से
 कर लो निज छवि का मोल प्रिये ।

 इस लेन-देन की दुनिया में
 निज को देकर सुख को ले लो,
तुम एक खिलौना बनो स्वयं
 फिर जी भर कर सुख से खेलो ।

 पल-भर जीवन, फिर सूनापन
 पल-भर तो लो हँस-बोल प्रिये
 कर लो निज प्यासे अधरों से
 प्यासे अधरों का मोल प्रिये ।

 सिहरा तन, सिहरा व्याकुल मन,
सिहरा मानस का गान प्रिये
 मेरे अस्थिर जग को दे दो
 तुम प्राणों का वरदान प्रिये ।

 भर-भरकर सूनी निःश्वासें
 देखो, सिहरा-सा आज पवन
 है ढूँढ़ रहा अविकल गति से
 मधु से पूरित मधुमय मधुवन ।

 यौवन की इस मधुशाला में
 है प्यासों का ही स्थान प्रिये
 फिर किसका भय? उन्मत्त बनो
 है प्यास यहाँ वरदान प्रिये ।

 देखो प्रकाश की रेखा ने
 वह तम में किया प्रवेश प्रिये
 तुम एक किरण बन, दे जाओ
 नव-आशा का सन्देश प्रिये ।

 अनिमेष दृगों से देख रहा
 हूँ आज तुम्हारी राह प्रिये
 है विकल साधना उमड़ पड़ी
 होंठों पर बन कर चाह प्रिये ।

 मिटनेवाला है सिसक रहा
 उसकी ममता है शेष प्रिये
 निज में लय कर उसको दे दो
 तुम जीवन का सन्देश प्रिये ।
-भगवतीचरण वर्मा 

रविवार, 24 सितंबर 2017

एक चाँद आवारा रहेगा.....श्वेता सिन्हा



बस थोड़ी देर और ये नज़ारा रहेगा,
कुछ पल और धूप का किनारा रहेगा।

हो जाएंंगे आकाश के कोर सुनहरे लाल,
परिंदों की ख़ामोशी शाम का इशारा रहेगा।

ढले सूरज की परछाई में च़राग रौशन होंगे,
दिनभर के इंतज़ार का हिसाब सारा रहेगा।

मुट्ठियों में बंद कुछ ख़्वाब थके से लौटेंगे,
शजर की ओट लिये एक चाँद आवारा रहेगा।

अँधेरों की वादियों में तन्हाइयाँ महकती है,
सितारों के गांव में चेहरा बस तुम्हारा रहेगा।
         #श्वेता🍁



        



शनिवार, 23 सितंबर 2017

चंद शेर..........बशीर बद्र


उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये ।
.....
ज़िन्दगी तूने मुझे कब्र से कम दी है ज़मीं 
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है । 
.....
जी बहुत चाहता है सच बोलें
क्या करें हौसला नहीं होता । 
.....
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे 
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों । 
.....

एक दिन तुझ से मिलनें ज़रूर आऊँगा 
ज़िन्दगी मुझ को तेरा पता चाहिये ।
.....

इतनी मिलती है मेरी गज़लों से सूरत तेरी 
लोग तुझ को मेरा महबूब समझते होंगे । 
 .....
वो ज़ाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है 
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे । 
..... 
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में 
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलानें में। 
 .....
पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी, 
आँखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते । 
..... 
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था. 
फिर उस के बाद मुझे कोई अजनबी नहीं मिला ।
 .....
मैं इतना बदमुआश नहीं यानि खुल के बैठ 
चुभने लगी है धूप तो स्वेटर उतार दे ।

-बशीर बद्र

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

मैं, कीर्ति, श्री, मेधा, धृति और क्षमा हूं......स्मृति आदित्य


एक मधुर सुगंधित आहट। 
आहट त्योहार की। 
आहट रास, उल्लास और श्रृंगार की। 
आहट आस्था, अध्यात्म 
और उच्च आदर्शों के प्रतिस्थापन की। 
एक मौसम विदा होता है और 
सुंदर सुकोमल 
फूलों की वादियों के बीच 
खुल जाती है श्रृंखला 
त्योहारों की। 
श्रृंखला जो बिखेरती है 
चारों तरफ खुशियों के 
खूब सारे खिलते-खिलखिलाते रंग।
हर रंग में एक आस है, 
विश्वास और अहसास है। 
हर पर्व में संस्कृति है, 
सुरूचि और सौंदर्य है। 
ये पर्व न सिर्फ 
कलात्मक अभिव्यक्ति 
के परिचायक हैं, 
अपितु इनमें गुंथी हैं, 
सांस्कृतिक परंपराएं, 
महानतम संदेश और 
उच्चतम आदर्शों की 
भव्य स्मृतियां। 
इन सबके केंद्र में सुव्यक्त होती है 
-शक्ति। 
उस दिव्य शक्ति के बिना 
किसी त्योहार, 
किसी पर्व, 
किसी रंग और 
किसी उमंग की 
कल्पना संभव नहीं है।

-स्मृति आदित्य

गुरुवार, 21 सितंबर 2017

टूटकर फूल शाखों से....श्वेता सिन्हा



टूटकर फूल शाख़ों से झड़ रहे हैं।
ठाठ ज़र्द पत्तों के उजड़ रहे हैं।।

भटके परिंदे छाँव की तलाश में
नीड़ोंं के सीवन अब उधड़ रहे हैं।

अंजुरी में कितना जमा हो ज़िदगी
बूँद बूँद पल हर पल फिसल रहे हैं।

ख़्वाहिशों की भीड़ से परेशान दिल
और हसरतें आपस में लड़ रहे हैं।

राह में बिछे फूल़ो का नज़ारा है
फिर आँख में काँटे कैसे गड़ रहे हैं।

      #श्वेता🍁

बुधवार, 20 सितंबर 2017

यहां जो हादसे कल हो गए हैं....नासिर काजमी

तेरे मिलने को बेकल हो गए
मगर ये लोग पागल हो गए हैं

बहारें लेके आए थे जहां तुम
वो घर सुनसान जंगल हो गए हैं

यहां तक बढ़गए आलम-ए-हस्ती
कि दिल के हौसले शल हो गए हैं

कहां तक ताब लाए नातवां दिल
कि सदमें अब मुसलसल हो गए हैं

उन्हें सदियों न भूलेगा जमाना
यहां जो हादसे कल हो गए हैं

जिन्हें हम देख कर जीते थे नासिर
वो लोग आंखों से ओझल हो गए हैं
- नासिर काजमी..

मंगलवार, 19 सितंबर 2017

क़लन्दर तो ज़मीं पर बैठते हैं.....राज़िक़ अंसारी

चलो चल कर वहीं पर बैठते हैं
जहां पर सब बराबर बैठते हैं

न जाने क्यों घुटन सी हो रही है
बदन से चल के बाहर बैठते हैं

हमारी हार का ऐलान होगा
अगर हम लोग थक कर बैठते हैं

तुम्हारे साथ में गुज़रे हुए पल
हमारे साथ शब भर बैठते हैं

बताओ किस लिये हैं नर्म सोफ़े 
क़लन्दर तो ज़मीं पर बैठते हैं

तुम्हारी बे हिसी बतला रही है
हमारे साथ पत्थर बैठते हैं 

सोमवार, 18 सितंबर 2017

प्रिय सुध भूले री......महादेवी वर्मा

1907-1987

प्रिय सुध भूले री, मैं पथ भूली 
मेरे ही मृदु उर में हंस बस 
सांसों में भर मादक मधु रस 
लघु कलिका के चल परिमल से 
ये नभ छाये री मैं वन फूली 


तज उनका गिरि सा गुरु अंतर 

मैं सिक्ताकण सी आई झर 
आज सजन उनसे परिचय क्या 
ये नभ चुम्बित मैं पद धूली 


उनकी वीणा की मृदु कम्पन 

डाल गई री मुझमें जीवन 
खोज ना पाई अपना पथ मैं
प्रतिध्वनि सी सूने में गूंजी 
प्रिय सुध भूले री मैं पथ भूली ~
       
~ महादेवी वर्मा

रविवार, 17 सितंबर 2017

भीड़ हमसे दूर जाती है....अज्ञात

जो मुहब्बत में दर्द पाते हैं
उनके दिल में खुदा आते हैं

सोचकर हम कुछ नहीं कहते
जो दिल में है, कह जाते हैं

भीड़ हमसे दूर जाती है
और हम तन्हा रह जाते हैं

चांद संग दो कदम चलकर
बीते दिन हमको याद आते हैं   
रचनाकारः अज्ञात 

शनिवार, 16 सितंबर 2017

कुछ खबर ही नहीं लापता कौन है.............नवीन मणि त्रिपाठी


212 212 212 212
पूछिये मत यहां गमज़दा कौन है ।
पूछिये मुद्दतों से हँसा कौन है ।।

वो तग़ाफ़ुल में रस्में अदा कर गया ।
कुछ खबर ही नहीं लापता कौन है ।।

घर बुलाकर सनम ने बयां कर दिया ।
आप आ ही गये तो ख़फ़ा कौन है ।।

इस तरह कोई बदला है लहजा कहाँ ।
आपके साथ में रहनुमा कौन है ।।

आज तो बस सँवरने की हद हो गई ।
यह बता दीजिए आईना कौन है ।।

अश्क़ आंखों से छलका तो कहने लगे ।
ढल गई उम्र अब पूंछता कौन है ।।

यूँ भटकता रहा उम्र भर इश्क में ।
पूछता रह गया रास्ता कौन है ।।

मैंने ख़त में उसे जब ग़ज़ल लिख दिया ।
फिर सवालात थे ये लिखा कौन है ।।

दीजिये मत खुदा की कसम बेसबब ।
अब खुदा को यहां मानता कौन है ।।

है जरूरी तो घर तक चले आइये ।
आप क्या हैं इसे जानता कौन है ।।

- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

मिट न सकी...अंशू सिंह


मिट न सकी

अंतहीन भूख
अभ्यंतर से 

मेरे अभ्यंतर से 

बार बार पुनः
जन्म हुआ
चाहिये मुझको 
भरपाई
तृप्त भरपाई 

संकीर्ण से अनंत
तक की प्यास 
पुनः बुझानी है

कालविजयी दशाओं में
अक्सर भूखा था
उस रोज़ 
और प्यासा था 

जब फूटती थी
एक विशाल नदी
प्रवाही मन से 

निशब्द है ज़ुबान
आज 

भूख व्यक्त नही करती
उगती है
विलीन हो जाती है 

पर हर पहलू
एक भूख है 
अंतहीन भूख

-अंशू सिंह
जन्म 30 अक्टूबर 1987
वाराणसी काशी हिन्दू वि वि 
से स्नातक एवं स्नातकोत्तर

गुरुवार, 14 सितंबर 2017

आँख खुली घेरती....विजय किशोर मानव

आंख खुली घेरती सलाखें हमको मिलीं
पिंजरे का गगन कटी पांखें हमको मिलीं

अनगिनत हिरन सोने के फिरते आसपास,
वनवासी सीता की आंखें हमको मिलीं

नंदनवन में जन्मे, गंध में नहाए पर
हम बबूल, रोज़ कटी शाखें हमको मिलीं

अदनों को ताज-तख़्त, राज-पाट क्या नहीं
और सर छुपाने को ताखें हमको मिलीं

उम्र कटी कंधों पर बुझी मशालें ढोते
आग कहां धुआं कभी, राखें हमको मिलीं

   -विजय किशोर मानव

बुधवार, 13 सितंबर 2017

एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों....इब्ने इंशा

एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों
एक मेले में पहुंचा हुमकता हुआ

जी मचलता था हर इक शय पे मगर
जेब ख़ाली थी, कुछ मोल न ले सका

लौट आया, लिए हसरते सैंकड़ों
एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों

खैर मेहरूमियों के वो दिन तो गए
आज मेला लगा है उसी शान से

जी में आता है इक इक दुकान मोल लूँ
जो मैं चाहूँ तो सारा जहां मोल लूं

नारसाई का अब में धड़का कहां
पर वो छोटा सा अल्हड़ सा लड़का कहां ?
-इब्ने इंशा

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

भरा शहर वीराना है.....श्वेता सिन्हा

पहचाने चेहरे हैं सारे
क्यूँ लगता अंजाना है।
उग आये हैं कंक्रीट वन
भरा शहर वीराना है।

बहे लहू जिस्मों पे ख़ंजर
न दिखलाओ ऐसा मंज़र,
चौराहे पर खड़े शिकारी
लेकर हाथ में दाना है।

चेहरों पर चेहरे हैं बाँधें
लोमड़ और गीदड़ हैं सारे,
नहीं सलामत एक भी शीशा
पत्थर से  याराना है।

मरी हया और सूखा पानी
लूट नोच करते मनमानी,
गूँगी लाशें जली ज़मीर का
हिसाब यहीं दे जाना है।

वक़्त सिकंदर सबका बैठा
जो चाहे जितना भी ऐंठा,
पिघल पिघल कर जिस्मों को
माटी ही हो जाना है।

-श्वेता सिन्हा

सोमवार, 11 सितंबर 2017

पागलों की क्या कमी है आजकल....चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’



प्यास की शिद्दत बढ़ी है आजकल
जबके आँखों में नदी है आजकल

मुस्कुराए बिन चले जाते हो तुम
ऐसी भी क्या बेबसी है आजकल

वस्‍ल की बेचैनियाँ जाती रहीं
इस सिफ़त की दोस्ती है आजकल

आजकल छत पर ही आ जाता है चाँद
इसलिए कुछ ताज़गी है आजकल

शह्र की सड़कें खचाखच हैं भरी
तन्हा फिर भी आदमी है आजकल

तुम उगलते थे जिसे वह ज़ह्र भी
हद से ज्‍़यादा क़ीमती है आजकल

उनका रुत्‍बा, उनकी ख़ुशियाँ उनकी ठीस
अपनी तो लाचारगी है आजकल

क्यूँ लगे है यूँ के मानिंदे क़फ़न
ज़िन्दगी भी ओढ़ती है आजकल

कर रहे ग़ाफ़िल जी तुम भी शाइरी
पागलों की क्या कमी है आजकल



रविवार, 10 सितंबर 2017

मनुष्यता...........मैथिलीशरण गुप्त

1886 -1964
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।

सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में
सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

- राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त

14...बेताल पच्चीसी....चोर क्यों रोया

चोर क्यों रोया और फिर क्यों हँसते-हँसते मर गया?” अयोध्या नगरी में वीरकेतु नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में रत्नदत्त नाम का एक सा...