1886 -1964
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।
सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में
सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में
अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में
दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं
अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
- राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
पुराने जमाने की अच्छी सोच की कविता।
जवाब देंहटाएंआभार दी इतनी सुंदर,प्रेरक संदेशात्मक कविता के लिए।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 11 सितंबर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"
जवाब देंहटाएंखड़ी बोली के सुप्रसिद्ध कवि मैथलीशरण गुप्त जी को पद्म भूषण और राष्ट्रकवि जैसे प्रतिष्ठित सम्मान से देश ने नबाज़ा। उनकी विशिष्ट रचना विविधा के पाठकों को पढ़वाने के लिए आपका हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंनमन राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त जी को सादर।
जवाब देंहटाएंगुप्त जी की यह प्रसिद्द कविता आज भी प्रासंगिक है. 'घटे न हेल-मेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी' यह पंक्ति क्या-क्या नहीं कह जाती. आज गला-काट प्रतियोगिता का युग है. हो सकता है कि गुप्त जी की बात कम लोगों के ही समझ में आए पर एक समय ऐसा अवश्य आएगा जब करुना, मानवीयता और परोपकार की महत्ता को लोग फिर से स्वीकार करेंगे.
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत ही खूबसूरत प्रस्तुति ! बहुत खूब
जवाब देंहटाएंउदार विचार प्रत्येक युग में प्रासंगिक होते है | विचारों और सोच की उदारता समय की मांग है मानव मानव के प्रति सहिष्णुता ही असली मानवता है | गुप्त जी की रचना के क्या कहने !! उनके उद्दात वचन कालजयी है | दीदी बहुत आभारी हैं आपके कि आप ने ये सुंदर रचना उपलब्ध करवाई |
जवाब देंहटाएं