प्यास की शिद्दत बढ़ी है आजकल
जबके आँखों में नदी है आजकल
मुस्कुराए बिन चले जाते हो तुम
ऐसी भी क्या बेबसी है आजकल
वस्ल की बेचैनियाँ जाती रहीं
इस सिफ़त की दोस्ती है आजकल
आजकल छत पर ही आ जाता है चाँद
इसलिए कुछ ताज़गी है आजकल
शह्र की सड़कें खचाखच हैं भरी
तन्हा फिर भी आदमी है आजकल
तुम उगलते थे जिसे वह ज़ह्र भी
हद से ज़्यादा क़ीमती है आजकल
उनका रुत्बा, उनकी ख़ुशियाँ उनकी ठीस
अपनी तो लाचारगी है आजकल
क्यूँ लगे है यूँ के मानिंदे क़फ़न
ज़िन्दगी भी ओढ़ती है आजकल
कर रहे ग़ाफ़िल जी तुम भी शाइरी
पागलों की क्या कमी है आजकल
शानदार,लाज़वाब,उम्दा गज़ल।
जवाब देंहटाएंहर शेर बेहतरीन।
आभार आपका
हटाएंमुझे मान देने के लिए बहन यशोदा जी का बहुत बहुत आभार
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-09-2017) को गली गली गाओ नहीं, दिल का दर्द हुजूर :चर्चामंच 2725 पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ख़ूबसूरत यथार्थपरक ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंहरेक शेर में महकते एहसास।
बधाई।
सराहना के लिए आभार आपका
हटाएंबहुत बहुत शानदार ग़ज़ल ग़ाफ़िल जी। हर एक मिसरा जानदार। एकदम उम्दा रचना
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