फ़ॉलोअर

बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

अनलिखी नज़्में......प्रियंका सिंह



जब नींद 
नहीं आती रातों को 
अक्सर न जाने कितनी ही 
अनलिखी नज़्में 
मेरे साथ 
करवट बदला करती हैं 

कई बारी आँखों के 
दरवाज़े खटखटाती 
आँसू बन 
गालों को चूमती हैं 

कभी तकिये पर 
सीलन सी महकती हैं 
नर्म पड़ जाता है जब 
यादों से 
ख़ामोशी का बिछोना 
नज़्में 
तन्हाई को सहलाती है 
धकेलती है, लफ्ज़ों को 
ज़बां तक बिछने को 
सफ़हे तलाशती है 

वरक फैले होते है ख़्यालों के 
उन्हें चुनती, चूमती 
गले लगाती हैं 
मेरे ऐसे 
कितने ही पुलिंदे 
ये बाँध रख जाती हैं 

रंजो ग़म से घबराती नहीं 
मेरा साथ निभाए जाती हैं 
यूँही रात भर 
अक्सर जब कभी 
मुझे नींद नहीं आती 
न जाने 
कितनी अनलिखी 
मेरे साथ करवट बदला करती हैं ……..

-प्रियंका सिंह

मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

उदास नज़्म............सीमा ‘असीम’ सक्सेना

जब कभी उकेर लेती हूँ तुम्हें 
अपनी नज़्मों में !

आँसुओं से भीगे 
गीले, अधसूखे शब्दों से!!

सूख जायेंगी गर कभी 
वे उदास नज़्में!

सबसे पहले सुनाऊँगी 
या दिखाऊँगी!! 

सच में गीली हैं 
अभी तो!
वाकई बहुत भीगी भीगी सी 
न जाने कैसे सूखेंगी???

इस गीले मौसम को भी 
अभी ही आना था?

-सीमा ‘असीम’ सक्सेना

सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

अभंगित मौन .............चन्द्र किशोर प्रसाद


मूक होकर मौन धारण करूँ कब तक, 
लाली लायी अब अरुण फिर
बन गया है वीर काफ़िर 
मैँ बनूँ काफ़िर कब तक;

डर है तुमको झँझावातोँ से
डर है मुझको सूनी रातोँ से 
औँधे कटोरे के सितारे 
मैँ तो गिनता रहूँ कब तक;

तुम अभी कोमल प्रवाहिनी हो 
किंतु मेरे मन मन्दिर की रागिनी हो 
हाथ मेँ वीणा लिये मैँ 
तेरी प्रतिक्षा करूँ कब तक।

मूक होकर मौन धारण करूँ कब तक .

-चन्द्र किशोर प्रसाद

रविवार, 25 फ़रवरी 2018

मर-मर के जीने वाले.........डॉ. अमिताभ विक्रम द्विवेदी

मर-मर के जीने वाले क्या जाने क़ज़ा क्या है,
सुरुर के दीवाने ना जाने खुमारी का मज़ा क्या है।

मेरे ही घर में करता है मुझे मारने की साज़िश,
जब मिलता है पूछता है कि तुझे फ़िक्र क्या है।

ईंट मिट्टी की इमारत को लोगों ने बनाया घर,
उसी को बाँट कर पूछते हैं कि तू कौन क्या है।

ज़िन्दगी जीने का सलीका उसे ना आ सका,
मरने पे पूँछता है मेरी मौत की वजह क्या है।

आदमी को आदमी की गंध सुहाती नहीं,
दीवारों से पूछता है वीराने की वजह क्या है।

- डॉ. अमिताभ विक्रम द्विवेदी

शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

आँसू बोलते हैं....संजीव कुमार बब्बर

आँसू बोलते हैं ये जाना 
आँसुओं को तेरे देख कर
जब......

लब को तूने दबा लिया
साँसों को तूने थाम लिया
आँखों को तूने झुका लिया
तब......

आँखों से आँसू बहने लगे
उन पर तेरा वश न चला
ये आँसू सब कुछ कहने लगे
-संजीव कुमार बब्बर

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

सो गई आके माँ के पल्लू में...मनी यादव

छोड़ दो आसमाँ के पल्लू में
रह नहीं सकता जाँ के पल्लू में

खेलते खेलते थक कर अब धूप
सो गई आके माँ के पल्लू में

धड़कनें आती जाती रहती हैं
इस दिल-ए-मेहरबाँ के पल्लू में

मेरी आवाज़ बेघर थी आख़िर
घर मिला दास्ताँ के पल्लू में

दुश्मनी दोस्ती दोनों रहतीं
एक बस इस ज़ुबाँ के पल्लू में
- मनी यादव

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2018

आँधियो, तुमने दरख्तों को गिराया होगा.....कैफ भोपाली

कौन आएगा, यहां कोई न आया होगा
मेरा दरवाज़ा हवाओं ने हिलाया होगा

दिल-ए-नादाँ न धड़क ऐ दिल-ए-नादाँ न धड़क
कोई खत ले के पड़ोसी के घर आया होगा

दिल की क़िस्मत ही में लिखा था अँधेरा शायद
वरना मस्जिद का दिया किसने बुझाया होगा

गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो
आँधियो, तुमने दरख्तों को गिराया होगा

खेलने के लिए बच्चे निकल आये होंगे
चाँद अब उसकी गली में उतर आया होगा

'कैफ' परदेस में मत याद करो अपना मकाँ
अब के बारिश ने उसे तोड़ गिराया होगा
- कैफ भोपाली

बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

झुकना मत....निधि सिघल


जैसे ही डाक्टर ने कहा
झुकना मत।
अब और झुकने की
गुंजाइश नही...
सुनते ही उसे..
हँसी और रोना ,
एक साथ आ गया।

ज़िंदगी में पहली बार वह
किसी के मुँह से सुन रही थी
ये शब्द .....।।

बचपन से ही वह
घर के बड़े, बूढ़ों 
माता-पिता,
चाची, ताई,
फूफी,मौसी..
अड़ोस पड़ोस,
अलाने-फलाने,
और समाज से
यही सुनती आई है 
यही दिया गया है उसे घुट्टी में
झुकी रहना...।।

औरत के झुके रहने से ही
बनी रहती है गृहस्थी...
बने रहते हैं संबंध...
प्रेम..प्यार,
घर परिवार
ठीक ऐसे ही जैसे..
पृथ्वी अपने अक्षांश पर 
23.5 ० झुकी रहकर
शगति करती रहती है
बनते हैं जिससे दिन रात, 
बनती और बदलती हैं ऋतुएँ।

उसका झुकना बना
नींव घर और इतिहास की,
उसके झुकने पर बनी लोकोक्तियाँ और मुहावरे
और वह झांसे में आई।।

आदिमयुग से ही
झुकती गई.. झुकती गई
कि भूल ही गई
उसकी कोई रीढ भी है
और ये डॉक्टर कह रहा है
झुकना मत......
सठिया गया लगता है...।।

वह हैरत से देख रही है
डॉक्टर के चेहरे की ओर
और डॉक्टर उसे नादान समझ कर 
समझा रहा है
देखिए ...लगातार झुकने से 
आपकी रीढ़ की हड्डी में
गैप आ गया है।।

गैप समझती हैं ना आप?
रीढ़ की हड्डी छोटे छोटे छल्ले जैसी हड्डियां होती हैं 
लगातार झुकने से वो अपनी जगह से
खिसक जाती हैं 
और उनमें
खालीपन आ जाता है।।

डाक्टर बोले जा रहा है
और
वह सोच रही है...
बचपन से आज तक
क्या क्या खिसक गया
उसके जीवन से
बिना उसके जाने समझे....।।

उसका खिलंदड़ापन, अल्हड़पन
उसकी स्वच्छंदता, उसके सपने
उसका मन, उसकी चाहत..
इच्छा,अनिच्छा
सच
कितना कुछ खिसक गया जीवन से।।

डाक्टर उसे समझाये
जा रहा है
कि ज़िंदा रहने के लिये
अब ज़रूरी हो गया है..
रीढ सीधी रखें... 
और जाने कब ...
मन ही मन 
वह भी दोहराने लगी है.....
अब झुकना मत,
अब झुकना मत.....।।
-निधि सिंघल

शब्दों तुम बरसो.....डॉ. प्रभा मुजुमदार


चुपचुप धीमे-से रुकते, 
झिझकते मत बुदबुदाओ।
डर और सन्नाटे में
संगीत बन मत गुनगुनाओ।
शब्दो! तुम बन जाओ
हथौड़ों की गूंज।
ठक-ठक कर हिलाते रहो;
जंग लगे बन्द दरवाज़ों की चूल।

बजो तो तुम नगाड़ों की तरह,
कि न कर पाये कोई बहरेपन का स्वांग।   
शब्दों तुम बरसो, 
बारिश की फुहार बन कर;
अरसे से बंजर पड़ी 
धरती पर, अरमान बन लहलहाओ।
ठस और ठोस
संकीर्ण और सतही,
मन की जड़ता को
तुम पंख दो शब्दो।

आकाश की तरलता में उड़ते रहें स्वप्न।
विस्तारती रहे सोच।
धूमकेतुओं की तरह
पड़ताल करती रहें नक्षत्रों की।

शब्दो! तुम काग़ज़ पर उकेरी गई
बेमतलब रेखाएं नहीं।
गढ़ो नई परिभाषाओं को।

-डॉ. प्रभा मुजुमदार

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

प्रश्न,,,,,सुनील घई


दूर क्षितिज में 
फटते बादलों में से उभरता- 
यह सुनहरा प्रकाश - ज्ञान किरण,
भरी प्रश्नों साथ।

किसी पुस्तक में न छपे उत्तर इसके,
न किये किसी ने 
प्रश्न मुझ से।

यह अन्दर से उभरे प्रश्न,
अन्तकरण में ही 
छिपे उत्तर इनके,
सिमित बुद्धि सहन कर पायेगी-
क्या उत्तरों की बरसात?

बैठा धरती पे देख रहा,
टकटकी लगाये,
क्या बसा है उस पार?

कुरेद कुरेद मन बुद्धि 
थक चूर हुए,
आत्म समर्पण कर बैठ गया,
मैं यहाँ और-
मैं ही वहाँ - उस पार।

यह उत्तर था या
एक और प्रश्न?
बस इसी सोच में डूब गया
मैं फिर एक बार।
-सुनील घई

रविवार, 18 फ़रवरी 2018

प्रलय.......डॉ. जेन्नी शबनम


नहीं मालूम कौन ले गया 
रोटी को और सपनों को 
सिरहाने की नींद को 
और तन के ठौर को 
राह दिखाते ध्रुव तारे को 
और दिन के उजाले को 
मन की छाँव को 
और अपनों के गाँव को 
धधकती धरती और दहकता सूरज 
बौखलाई नदी और चीखता मौसम 
बाट जोह रहा है 
मेरे पिघलने का 
मेरे बिखरने का 
मैं ढहूँ तो एक बात हो 
मैं मिटूँ तो कोई बात हो!

-डॉ. जेन्नी शबनम

उल्फ़त या इबादत.....अशोक वशिष्ट

तुझको मालूम नहीं है कि मुहब्बत क्या है?
तुझको मालूम नहीं है कि इबादत क्या है?

जिसकी नस-नस में उसी का नाम रहता है,
उसका दिल जाने, ये रूह की उल्फ़त क्या है?

जिसको सूली का न डर है न किसी जहर का,
इक वो ही जाने कि, उसकी इनायत क्या है?

तुझको बस जिस्म की, जन्नत की भूख रहती है,
तुझको मालूम नहीं, प्यार की फ़ितरत क्या है?

खुदको खोकर जो उसका ही हो जाता है,
उसे पूछो कि ये, उल्फ़त या इबादत क्या है?
-अशोक वशिष्ट

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

उदासीनता ....शैलेन्द्र चौहान

क्या मुझे पसंद है
उदासीनता
क्या तटस्थता और
विरक्ति ही है
उपयुक्त जीवन शैली
क्या निष्क्रियता है
मेरा आदर्श ?
थमी हुई है हवा

निर्जन एकांत में
ध्वनि,
नहीं महत्वहीन
न नगण्य और
असंगत

-शैलेन्द्र चौहान

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

इतना तो ज़िंदगी में किसी की खलल पड़े...कैफ़ी आज़मी

इतना तो ज़िंदगी में किसी की खलल पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े

जिस तरह हंस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-गम
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े

एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े
[नशेब=उतार ; फ़राज़=चढ़ाव ]

मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी खुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े

साकी सभी को है गम-ए-तश्नालबी मगर
मय है उसी के नाम पे जिस के उबाल पड़े

-कैफ़ी आज़मी

पायल छनकी....कुसुम कोठारी

उषा ने सुरमई शैया से
अपने सिंदूरी पांव उतारे
पायल छनकी
बिखरे सुनहरी किरणों के घुंघरू 
फैल गये अम्बर मे
उस क्षोर से क्षितिज तक
मचल उठे धरा से मिलने
दौड़ चले आतुर हो
खेलते पत्तियों से
कुछ पल द्रुम दलों पर ठहरे
श्वेत ओस को
इंद्रधनुषी बाना पहना चले
नदियों की कल कल मे
स्नान कर पानी मे रंग घोलते
लाजवन्ती को होले से
छूते प्यार से
अरविंद मे नव जीवन का
संदेश देते
कलियों फूलों मे
लुभावने रंग भरते
हल्की बरसती झरनों की
फुहारों पर इंद्रधनुष रचते 
छन्न से धरा का
आलिंगन करते,
जन जीवन को
नई हलचल देते
सारे विश्व पर अपनी
आभा छिटकाते
सुनहरी किरणों के घुंघरू।
-कुसुम कोठारी

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

“ज़माने में यही होता रहा है”.....अखिल भंडारी


किनारे पर खड़ा क्या सोचता है 
समुंदर दूर तक फैला हुआ है 

ज़मीं पैरों से निकली जा रही है 
सितारों की तरफ़ क्या देखता है 

चलो अब ढूँढ लें हम कारवाँ इक 
बड़ी मुश्किल से ये रस्ता मिला है 

हमें तो खींच लाई है मुहब्बत
तुम्हारा शहर तो देखा हुआ है 

नये कपड़े पहन के जा रहे हो 
वहाँ कीचड़ उछाला जा रहा है 

वहाँ तो बारिशें ही बारिशें हैं 
यहाँ कोई बदन जलता रहा है 

कभी उस को भी थी मुझ से मुहब्बत 
ये क़िस्सा अब पुराना हो चुका है 

बुरे दिन हैं सभी मुँह मोड़ लेंगे 
“ज़माने में यही होता रहा है”
-अखिल भंडारी

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

मेरे गीतों मेरी ग़ज़लों को रवानी दे दे....चाँद शुक्ला ’हदियाबादी’


मेरे गीतों मेरी ग़ज़लों को रवानी दे दे
तू मेरी सोच को एहसास का पानी दे दे 

मुद्दतों तुझसे मैं बिछड़ा हूँ मोहबत के लिये
ख़वाब मैं आ के मुझे याद पुरानी दे दे 

थक गया गर्दिशे दौरां से यह जीवन मेरा 
मेरे रहबर मुझे मंज़िल की निशानी दे दे

तेरी आँखों में बिछा रखीं हैं पलकें मैंने 
अब इन आँखों को मुससर्रत का तू पानी दे दे

"चाँद" निकला तो चकोरी ने कहा रूठे हुए
साथ अपने तू मुझे नकले मकानी दे दे 
-चाँद  शुक्ला ’हदियाबादी’

सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

तेरे प्रेम में, तेरी प्रीत में........अयान सुरोलिया


तेरी जुल्फों की छाँव में 
तेरी प्यार भरी निगाह में
तेरे हँसने में, तेरे रोने में
तेरा पल भर के लिए, मेरी बाहों में सोने में 
मैं जीवन पा लूँगा, सोचा न था।

तेरे प्रेम में, तेरी प्रीत में
तेरी हार में, तेरी जीत में
तेरी चहकती हुई वाणी के
मधुप्रिय संगीत मे
मैं जीवन पा लूँगा, सोचा न था।

तेरे हौले से मेरे गालों को चूमने में
तेरे डांटने में,तेरे छूने में
मेरे शीतरात्री जैसे, जीवन के सूने में
मैं जीवन पा लूँगा, सोचा न था।

तेरे प्यार से मेरे गालों को सहलाने में
तेरे रूख को परेशां करती, उन जुल्फों को हटाने में
तेरी मीठी सी शरारत में
तेरे आलिंगन की हरारत में
मैं जीवन पा लूँगा, सोचा न था।

हमारे प्रेम के प्रतीक,उन चादर की सिलवटों में
तुझसे लड़ने पर,उन बेचैन रातों की करवटों में,
तेरे होठों के ऊपर के तिल में
मेरे करीब आने पर, तेरे जोरों से धड़कते दिल में
मैं जीवन पा लूँगा, सोचा न था।

तुम साधना हो मेरी
तुम प्रीत हो मेरी
मेरी खोयी हुई नाव की साहिल हो तुम
मेरी इच्छाओ का अंत है,अगर हासिल हो तुम

न सोना हो तुम , ना ही हूर हो
तुम मेरा कोहिनूर हो
देखा है तुम्हे, छूआ है तुम्हे
महसूस भी किया है
फिर भी न जाने क्यू लगता है
तुम कल्पना हो मेरी।

जो जीवन पाया है तुमसे
जिसे ना सोचा था, ना जिसकी उम्मीद थी
उस जीवन की 
तुम प्रेरणा हो मेरी।

-अयान सुरोलिया

रविवार, 11 फ़रवरी 2018

"परमेश्वरा " (हाइकु ) ...कुसुम कोठारी

तमो वितान
तम हर, दे ज्योति
पालनहार।

निशा थी काली
भोर की फैला लाली
हे ज्योतिर्मय।

शंकित मन
शंका हर , दे वर
जगत पिता।

रुठा है भाग्य
शरण तेरी आये
वरद दे हस्त।

आया शरण
भव नाव डोलत 
परमेश्वरा ।

मंजिल भूले
राह नही सूझत
दे दिशा ज्ञान।

-कुसुम कोठारी 

शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

बस देखता रहूंगा....राकेश पत्थरिया 'सागर'


तेज हवाओं में
जब झांकता हूँ खिड़की से उस ओर
तो इन पेड़ों के नृत्य में
तलाशता हूँ कुछ,
उसी समय आसमान में
बहते बादलों में
मिलता है एक अक्स
हू-ब-हू तुम जैसा
आँखें, नाक, कान और बाल।
और वो अक्स
बादलों पर सवार होकर
जा रहा है दूर
बहुत दूर
उसके पीछे भागना मेरे बस में कहां
बस देखता रहूंगा
तब तक जब तक
आँखों से ओझल नहीं हो जाता।

-राकेश पत्थरिया 'सागर'

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

गुलमोहर (हाइकु).....ज्योत्सना प्रदीप


1.
गिरधर का 
मुकुट-धरोहर 
गुलमोहर।
2.
ताप सहता
पीड़ा ना कहता
गुलमोहर।
3.
मधु का स्रोत
खुशी से ओत-प्रोत
ये कृष्णचूड़
4.
मोह लेता रे
मोहन को भी यह
गुलमोहर।
5.
ये स्वर्ग-पुष्प
सुने राग-बहार 
मधुमक्खी का।
-ज्योत्सना प्रदीप

14...बेताल पच्चीसी....चोर क्यों रोया

चोर क्यों रोया और फिर क्यों हँसते-हँसते मर गया?” अयोध्या नगरी में वीरकेतु नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में रत्नदत्त नाम का एक सा...