तुमको रूठे इक ज़माना हो गया है,
मुंह दिखाए इक ज़माना हो गया है।
हिज्र पल-पल यूँ सताता हैं कि हमको,
मुस्कुराये इक ज़माना हो गया है।
सोचते हैं इन दिनों हम भी कहें कुछ,
सबकी सुनते इक ज़माना हो गया है।
और कितनी दूर है मंज़िल न जाने,
चलते - चलते इक ज़माना हो गया है।
उंगलियों पर तेरी हमको ऐ ह़यात,
रक़्स करते इक ज़माना हो गया है।
ऐ दिले - वीरां किसी से दोस्ती कर,
तुझको रोए इक ज़माना हो गया है।
मुंतज़िर रुठी हुईं है नींद अज़ल से,
ख़ाब देखे इक ज़माना हो गया है।
- कल्पना सक्सेना