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गुरुवार, 30 नवंबर 2017

परिणीता..........डॉ .इंदिरा गुप्ता

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सुख सुहाग 
माथे धरे 
गोरी हिय
सुख पाय 
प्रिय हाथ सिंदूर है 
ले सौगन्ध मांग
भरी जाय ! 

सुख सुहाग की
लाली 
प्रियतमा 
सदा सवारें रखना 
जीवन संगिनी 
जीवन पथ पर 
स्नेह भाव लिये 
संग चलना ! 

वचन बध्यता
रखेगे कायम 
मिल कर वचन
निभाये 
सिंदूर लालिमा 
जीवन पथ पर 
मिल कर हम
बिखराये ! 

एक युग्म 
हम दोनो होंगे 
सुख सौभाग्य
रचेंगे 
सुन अर्धांगिनी 
अपने जीवन को 
शुचि,  यश
गौरव से 
भर देगे ! 

डॉ .इंदिरा गुप्ता ✍

बुधवार, 29 नवंबर 2017

सर्द सुबह.......फुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

कहीं धूँध में लिपटकर, खोई हुई सी हैं सुबह,
धुँधलाए कोहरों में कहीं, सर्द से सिमटी हुई सी है सुबह,
सिमटकर चादरों में कहीं, अलसाई हुई सी है सुबह,
फिर क्युँ न मूँद लूँ, कुछ देर मैं भी अपनी आँखें?
आ न जाए आँखों में, कुछ ओस की बूंदें!

ओस में भींगकर भी, सोई हुई सी है सुबह,
कँपकपाती ठंढ में कोहरों में डूबी, खोई हुई सी है सुबह,
खिड़कियों से झांकती, उन आँखों में खोई है सुबह,
फिर क्युँ न इस पल में, खुद को मैं भी खो दूँ?
जी लूँ डूब कर, कुछ देर और इस पल में!

फिर लौटकर न आएगी कोहरे में डूबी ये सुबह,
शीत में भींग-भींगकर फिर न थप-थपाएगी ये सुबह,
सर्दियों की आड़ में फिर न बुलाएगी ये सुबह,
फिर क्युँ न मैं भी हो लूँ, इन सर्द सुबहो संग?
बाँट लूँ गर्म साँसें, देख लूँ कुछ जागे सपने!





मंगलवार, 28 नवंबर 2017

शब्द अब बिकने लगे है....श्रीमती डॉ. प्रभा मुजुमदार


शब्द अब
बिकने लगे है मंडियों में उत्पाद बन कर.
और बिचौलियों के समूह आ खड़े होते हैं 
उनके दाम आंकने के लिये,
अपने-अपने लेबल और अपनी पैकिंग के साथ!
स्तुति और प्रशस्तियों के ख़ुशामद 
और गिड़गिड़ाहट के दम्भ 
और दावों के शब्दों के वार 
शब्दों की ढाल 
शब्दों की आग में 
शब्दों का घी।

सब कुछ बाज़ारू तरीके से 
आयोजित हो जाता है।
रैलियां और धरनें लूट और घेराव,
भजन-कीर्तन और फैशन शो,
सांस्कृतिक और साहित्यिक जमावड़े भी।

हंसी और आँसू,
व्यंग्य और क्रोध,
प्रेम और अनुराग के शब्द, 
निर्देशित होकर
सही वक्त/ सही सांचे मे,
फिट किये जाने के बाद,
क्या भौंकना ही
मौलिक रह जायेगा।

-श्रीमती डॉ. प्रभा मुजुमदार

सोमवार, 27 नवंबर 2017

मेरे ही सर को छूकर बोलते हैं...राजेश रेड्डी

ज़ुबां ख़ामोश है डर बोलते हैं
अब इस बस्ती में ख़ंजर बोलते हैं

मेरी परवाज़ की सारी कहानी
मेरे टूटे हुए पर बोलते हैं

सराये है जिसे नादां मुसाफि़र
कभी दुनिया कभी घर बोलते हैं

तेरे हमराह मंज़िल तक चलेंगे
मेरी राहों के पत्थर बोलते हैं

नया इक हादिसा होने को है फिर
कुछ ऐसा ही ये मंज़र बोलते हैं

मेरे ये दोस्त मुझसे झूठ भी अब
मेरे ही सर को छूकर बोलते हैं
- राजेश रेड्डी

रविवार, 26 नवंबर 2017

मुझे ऐसे रुलाया न करो..........कुसुम सिन्हा


ऐसे तुम मुझको बेरुख़ी से सताया न करो
बेवफ़ा कहके मुझे ऐसे रुलाया न करो

जब से बिछडे हो अश्क़ गिराती हैं मेरी आँखें
बर्बाद करके मुझको मुस्कुराया न करो

काँटों भरी हैं राहें और गहरी तन्हाई है
हँस हँस के मेरे को और बढ़या न करो

ज़िन्दगी की राह में कुछ और भी ग़म हैं
इक ख़ुशी थी प्यार की उसको घटाया न करो

नाम लिख कर मेरा किसी ख़त में अपने
बेदर्दी से तुम उसको मिटाया न करो
-कुसुम सिन्हा

शनिवार, 25 नवंबर 2017

आ जाऊँगा मैं.......पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,
सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं...

जब दरारें तन्हा लम्हों में आ जाए,
वक्त के कंटक समय की सेज पर बिछ जाएँ,
दुर्गम सी हो जाएँ जब मंजिल की राहें,
तुम आहें मत भरना, याद मुझे फिर कर लेना,
दरारें उन लम्हों के भरने को आ जाऊँगा मैं......

इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,
सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं...

जब लगने लगे मरघट सी ये तन्हाई,
एकाकीपन जीवन में जब लेती हो अंगड़ाई,
कटते ना हों जब मुश्किल से वो लम्हे,
तुम आँखे भींच लेना, याद मुझे फिर कर लेना,
एकाकीपन तन्हाई के हरने को आ जाऊँगा मैं.....

इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,
सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं...

भीग रही हो जब बोझिल सी पलकें,
विरह के आँसू बरबस आँचल पे आ ढलके,
हृदय कंपित हो जब गम में जोरों से,
तुम टूटकर न बिखरना, याद मुझे फिर कर लेना,
पलकों से मोती चुन लेने को आ जाऊँगा मैं,

इक अक्श हूँ, ख्यालों में ढल जाऊँगा मैं,
सोचोगे जब भी तुम, सामने नजरों के आ जाऊँगा मैं...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

आँसुओं से लिखी ग़ज़ल...नीतू ठाकुर

आँसुओं से लिखी ग़ज़ल हमने, 
मेरे हमदम तेरी कहानी है,
अश्क़ टपके जो मेरी आँखों से, 
लोग सोचेंगे ये दीवानी है, 

वादा करना और मुकर जाना 
तेरी आदत बहुत पुरानी है 
फिर भी तुझ पर यकीन करता है 
ये तो दिल की मेरे नादानी है 

क्या करेंगे तुम्हारी दौलत का 
मिट रही हर घडी जवानी है 
मै जो कहती हूँ लौट आवो तुम 
मेरी तन्हाईयाँ बेमानी है 

लड़खड़ाते हुए कदम तेरे 
मेरी चाहत की ही नाकामी है 
मिट रही हर घडी मोहब्बत को 
अब तो यादों को ही बचानी है 

- नीतू ठाकुर 

गुरुवार, 23 नवंबर 2017

खामोश जुबाँ .....डॉ. इन्दिरा गुप्ता


खामोश जुबाँ 
खामोश नजर 
खामोश 
बसर खामोश ! 

खामोशी के 
मंजर का 
हर पल है 
खामोश ! 

चाँद - चाँदनी 
मौन साधक से 
शबनम भी बहती 
खमोश ! 


नील गगन से 
निशब्द धरा तक 
हर जर्रा 
खामोश !
डॉ. इन्दिरा गुप्ता

बुधवार, 22 नवंबर 2017

खोटा सिक्का चलते देखा...कुसुम कोठारी

न करना गुमान कामयाबी का
चढता सूरज  ढलते देखा ।

बुझ गया हो दीप न डरना
प्रयासों से फिर जलते देखा ।

हीरा पड़ा रह जाता कई बार
और खोटा सिक्का चलते देखा ।

जिनके मां बाप हो संसार मे 
उनको  अनाथों सा पलते देखा ।

जिसका नही कोई दुनिया मे 
उनको  उचांई पर चढते देखा ।

कभी किसी की दाल न गलती
कभी पत्थर तक पिघलते देखा ।

समय पडे जब काम न किया तो
खाली हाथों को मलते देखा ।

कुछ सर पर छत लेकर ना खुश हैं 
कहीं जमीं पे सोने वालो को खुश देखा।
-कुसुम कोठारी।

मंगलवार, 21 नवंबर 2017

ढोल के अंदर पोल.....पूनम श्रीवास्तव

आज के जमाने की 
कितनी बड़ी विडम्बना
है ये कि
एक कुत्ते को खरीदने 
में पांच हजार रुपये खर्च कर 
सकता है 
इंसान और
उसे खिलाने में लगभग पांच
हजार खर्च कर
सकता है और अपनी
गाड़ी में बैठा कर 
घूमाता भी है
जिससे की उसका
स्टेटस बढ़ता है
पर एक गरीब के बच्चे
को दो वक़्त की रोटी
खिलाने में 
या पेट भरने में उसका 
पैसा तथा स्टेटस दोनों ही
कम हो जाते हैं।
है ना 
कितनी अजीब बात 
और ऊपर से
ये भी कहना की हमें इन गरीब
बच्चों के लिए 
कुछ तो करना चाहिए 
ढोल के अंदर पोल ।

-पूनम श्रीवास्तव

सोमवार, 20 नवंबर 2017

जमाना भी था तब दिल्लगी का...डॉ. इन्दिरा


सुना -अनसुना 
कर
हर पल गुजरता 
क्या किस्सा 
कहे उनकी 
बेरुखी का ! 
उमर का
सफीना 
साहिल पे डूबा 
जमाना भी था 
तब दिल्लगी का ! 
साँसो की 
बेचैनियाँ
क्या कहे हम 
लगता था 
चक्कर जो 
उनकी गली का !
मेरी
इस खता को 
ना हँस कर
उड़ाओ 
किस्सा है 
ये मेरी
बेबसी का !
चाहा
बता कर 
दिल हल्का 
कर ले 
मखौल का
सबब
बना ये 
गमी का ! 
डॉ. इन्दिरा 

रविवार, 19 नवंबर 2017

तुम नहीं होती तो........डॉ. विनीता राहुरिकर

तुम नहीं होती तो
अलसाया रहता है
खिड़की का पर्दा
सोया रहता है देर तक
सूरज से नजरें चुराता...,

तुम नहीं होती हो तो
उदास रहता है 
चाय का कप
अपने साथी की याद में....

साथ वाली कुर्सी भी
अपने खालीपन में
बैचेनी से
पहलू बदलती रहती है.....

रात में तकिया
बहुत याद करता है
तुम्हारी बेतरतीब
उनींदी बिखरी लटों
और निश्चिंत साँसों की
उष्मीय आत्मीयता को....

तुम नहीं होती तो
क्या कहूँ
मेरा हाल भी कुछ
पर्दे, कप, कुर्सी
और रात में 
तकिये जैसा ही होता है....

-डॉ. विनीता राहुरिकर

शनिवार, 18 नवंबर 2017

बुलबुले.....श्वेता सिन्हा


जीवन के निरंतर
प्रवाह में
इच्छाएँ हमारी
पानी के बुलबुले से
कम तो नहीं,
पनपती है
टिक कर कुछ पल
दूसरे क्षण फूट जाती है
कभी तैरती है
बहाव के सहारे
कुछ देर सतह पर,
एकदम हल्की नाजुक
हर बार मिलकर जल में
फिर से उग आती है
अपने मुताबिक,
सूरज के
तेज़ किरणों को
सहकर कभी दिखाती है
इंद्रधनुष से अनगित रंग
ख्वाहिशों का बुलबुला
जीवन सरिता के
प्रवाह का द्योतक है,
अंत में सिंधु में
विलीन हो जाने तक
बनते , बिगड़ते ,तैरते
अंतहीन बुलबुले
समय की धारा में
करते है संघर्षमय सफर।

  श्वेता🍁

शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

मायके में बिटिया रानी...नीतू ठाकुर


पलकों को आँचल से पोछा,
चेहरे पर मुस्कान सजाई,
जब देखी आंगन में मैंने,
अपने बाबुल की परछाई,
बार बार घड़ी को देखे,
जैसे समय को नाप रहे थे,
पल में अन्दर पल में बहार,
रस्ते को ही झाँक रहे थे,
देख मुझे सुध-बुध बिसराये,
घर के अन्दर ऐसे भागे,
जैसे उन बूढ़े पैरों में,
नये नवेले चक्के लागे,
भाग के आई मैया मेरी,
हाथों में एक थाल सजाये,
आँखों में ख़ुशी के आँसू,
दिल में कई अरमान बसाये,
चारों तरफ ख़ुशी का आलम,
कलियों पर मुस्कान सी छाई,
जैसे पूछ रहा था आंगन , 
बिटिया बरसों बाद तू आई,
कितना दे दें कितना कर दें,
दामन को खुशियों से भर दें,
मेरा सुख-दुःख बाँट रहे थे,
एक दूजे को डांट रहे थे,  
एक बूँद भी आ ना पाये,
उसकी आँखों से अब पानी,
बरसों बाद लौट कर आई,
है जब मेरी बिटिया रानी,
उनके मन में ऐसे बसी थी,
जैसे तन में प्राण समाये,
फिर क्यों वहाँ ना पाये इज्जत,
जिनकी खातिर उम्र बिताये ? 
- नीतू ठाकुर 

गुरुवार, 16 नवंबर 2017

बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीवियाँ....अकबर इलाहाबादी

अकबर इलाहाबादी
16 नवम्बर 1846 - 15 फरवरी 1921

आज  श़ायर ज़नाब अकबर इलाहाबादी का जन्म दिन है
आज प्रस्तुत हैं उनकी दो रचनाएँ....

कोई हँस रहा है कोई रो रहा है
कोई पा रहा है कोई खो रहा है

कोई ताक में है किसी को है गफ़लत
कोई जागता है कोई सो रहा है

कहीँ नाउम्मीदी ने बिजली गिराई
कोई बीज उम्मीद के बो रहा है

इसी सोच में मैं तो रहता हूँ 'अकबर'
यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है
....................
दूसरी रचना हास्यरस में है
पुरानी रोशनी में और नई में फ़र्क़ है इतना
उसे कश्ती नहीं मिलती इसे साहिल नहीं मिलता

दिल में अब नूरे-ख़ुदा के दिन गए
हड्डियों में फॉसफ़ोरस देखिए 

मेरी नसीहतों को सुन कर वो शोख़ बोला-
"नेटिव की क्या सनद है साहब कहे तो मानूँ"

नूरे इस्लाम ने समझा था मुनासिब पर्दा
शमा -ए -ख़ामोश को फ़ानूस की हाजत क्या है

बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीवियाँ
‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरते क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो उनसे -‘आपका पर्दा कहाँ गया?’
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया.


हम आभारी हैँ..
 रचनाएँ व जानकारी कविता कोश से 

बुधवार, 15 नवंबर 2017

सितारे चूमते हैं शब....दिनेश नायडू

डरा रहे है ये मंज़र भी अब तो घर के मुझे
दिखाई ख़ाब दिए रात भर खंडर के मुझे

मैं रोज़ ग़ज़लों में हर शाम चाँद टांकता हूँ
सितारे चूमते हैं शब ! उतर उतर के मुझे

गंवा दी उम्र तुझे नज़्म कर नहीं पाया
मिले हैं यूँ तो सलीक़े हरिक हुनर के मुझे

इस एक शौक ने मुझको मिटा दिया यारो !
बस एक बार कभी देखना था मर के मुझे

किनारे बैठ के करता हूँ नज़्म अश्कों को
नदी सुनाती है अफ़साने चश्मे-तर के मुझे

मैं इक अधूरी सी तस्वीर था उदासी की
किया है किसने मुकम्मल यूँ रंग भर के मुझे

09303985412

मंगलवार, 14 नवंबर 2017

जो तुम आ जाते एक बार...महादेवी वर्मा

जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करुणा कितने सँदेश,
पथ में बिछ जाते बन पराग,
गाता प्राणों का तार-तार
अनुराग-भरा उन्माद-राग;
आँसू लेते वे पद पखार !
जो तुम आ जाते एक बार !

हँस उठते पल में आर्द्र नयन
घुल जाता ओठों से विषाद,
छा जाता जीवन में वसंत
लुट जाता चिर-संचित विराग;
आँखें देतीं सर्वस्व वार |
जो तुम आ जाते एक बार !
- महादेवी वर्मा 

सोमवार, 13 नवंबर 2017

एक औसत रात.........डॉ. शैलजा सक्सेना

साँझ का धुँधलका, सब धुँधला दिखे
थक गए पाँव मन भी थकने लगा
चक्र दिन का थका टूटता सा हुआ
रात के आँचल में चुप सोने चला।

देह ने देह को फिर आवाज़ दी
मन के चिल्लाते प्रश्न कहीं दब गए
बुद्धि भावों को पलने में चुप सो गयी
इंद्रियों में चाह के नयन जग गये।

अँगुलियाँ भटकती रहीं रात भर,
पगडंडियाँ देह में नई बनती गईं
बादल सा तन – मन तिरता रहा
खिला मन का कमल पँखुरी-पँखुरी।

फिर महाजन सी देखो सुबह हो गई
कर्ज़दारों सा जीवन सहमने लगा
फिर दबे प्रश्न सूरज से जलने लगे
उत्तरों को मन छटपटाने लगा।

दीवारों से निकल आये अभावों के प्रेत
आक्षेपों का जंगल फिर उगने लगा
चाहत चरमराकर चटकने लगी
देह के दैन्य पर मन हँसने लगा।

रही सुख की सीमा वही पल दो पल
असुख धुँध सा मन पर छाया रहे
रात जिसे बाँध आँचल में मेरे गई
प्रीतम वही अजनबी सा लगा॥
- डॉ. शैलजा सक्सेना
डॉ. शैलजा सक्सेना, जन्म स्थानः मथुरा (उ.प्र.)
शिक्षा : दिल्ली विश्विद्यालय से पी. एच.डी. (शोधकार्य - "स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी काव्य में युद्ध की भूमिका") , एम. फिल. (शोधकार्य - "कामायनी की आलोचनाओं की समीक्षा"), 
एम.ए. तथा बी.ए. (ऑनर्स) में दिल्ली विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान तथा स्वर्ण पदक
संप्रति : जानकी देवी कॉलेज, (दिल्ली विश्विद्यालय) में 1989 से 1998 तक अध्यापन करने के पश्चात विदेश प्रवास किया। आजकल टोरोंटो (कनाडा) में निवास और यहाँ के हिन्दी साहित्य समाज में पूर्ण रूप से व्यस्त। टोरोंटो में मानव संसाधन प्रबंधक के पद पर कार्यरत।

रविवार, 12 नवंबर 2017

सुबह का चलकर.......श्वेता सिन्हा

सुबह का चलकर शाम में ढलना।
जीवन का हर दिन जिस्म बदलना।।

हसरतों की रेत पे दरिया उम्मीद की,
खुशी की चाह है मिराज़ सा छलना।

चुभते हो काँटें ही काँटों का क्या है
जारी है गुल पर तितली का मचलना

वक्त के हाथों से ज़िदगी फिसलती है,
नामुमकिन इकपल भी उम्र का टलना।

अंधेरे नहीं होते हमसफर ज़िदगी में,
सफर के लिये तय सूरज का निकलना।

      #श्वेता🍁

शनिवार, 11 नवंबर 2017

दीपक ख़ुशी के जलाऊँ ...........नीतू ठाकुर

कैसे दीपक ख़ुशी के जलाऊँ पिया,
बिन तेरे आज खुशियाँ मनाऊँ पिया,
सोलह शृंगार से तन सजा तो लिया ,
संग तुम ले गये हो हमारा जिया,
बनके दीपक मै जलती रही रात भर,
एक पल भी हटी ना हमारी नजर,
इस तरह घिर के आई थी काली घटा ,
ऐसा लगता था जैसे ना होगी सहर

कैसे दीपक ख़ुशी के जलाऊँ पिया,
बिन तेरे आज खुशियाँ मनाऊँ पिया...

प्रीत की रीत हमने निभाई मगर,
क्यों ना बन पाई प्रीतम तेरी हमसफ़र,
राह तकते हुए प्राण त्यागेगा तन,
फिर भी होगी ना तुमको हमारी खबर

कैसे दीपक ख़ुशी के जलाऊँ पिया,
बिन तेरे आज खुशियाँ मनाऊँ पिया...

सज गई हर गली सज गया है शहर,
फिर भी खुशियों का होता नहीं क्यों असर,
आस मिलने की लेकर मै निकली मगर,
ये ना जानू की क्या होगा मेरा हशर,
कैसे दीपक ख़ुशी के जलाऊँ पिया,
बिन तेरे आज खुशियाँ मनाऊँ पिया...
- नीतू ठाकुर

शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

यहाँ अब मेरे राज़दाँ और भी हैं ....अल्लामा इकबाल

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं

तही ज़िन्दगी से नहीं ये फ़ज़ायें
यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं

कना'अत न कर आलम-ए-रन्ग-ओ-बु पर
चमन और भी, आशियाँ और भी हैं

अगर खो गया एक नशेमन तो क्या ग़म
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुगाँ और भी हैं

तू शहीं है पर्वाज़ है काम तेरा
तेरे सामने आस्माँ और भी हैं

इसी रोज़-ओ-शब में उलझ कर न रह जा
के तेरे ज़मीन-ओ-मकाँ और भी हैं

गए दिन की तन्हा था मैं अंजुमन में
यहाँ अब मेरे राज़दाँ और भी हैं 

मायने:
तही : तनहा/खाली, फ़ज़ायें : माहौल/मौसम, 
कना'अत  : खुश होना/सतुष्ट होना , 
आलम-ए-रन्ग-ओ-बु : खुशबु और रंग का जहां, 
नशेमन : घौसला, मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुगाँ : रोने या शांत होने की एक जगह, 
ज़मीन-ओ-मकाँ : समय के रास्ते

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

मन का क्रंदन... नीतू ठाकुर

हार जाती हूँ , टूट जाती हूँ,
रूठ जाती हूँ खुद से,
जब समझ नहीं आता, 
किस्मत क्या चाहती है मुझसे, 
मिटती है उम्मीदे,
टूटते है सपने,
पराये से लगते है
सब लोग अपने,
गिरती हूँ ,संभालती हूँ,
घुटती हूँ हर पल,
फिर भी मन कहता है,
अभी थोड़ा और चल,
कशमकश में गुजरी है
मेरी सारी ज़िंदगी,
क्यों करूँ भला मै
किसी और की बंदगी,
क्यों हो मेरे जीवन पर 
किसी और का अधिकार,
हो नहीं सकता मुझे 
दासत्व स्वीकार,
क्यों मै कतरू पंख अपने,
बांध लूँ मै बेड़ियाँ, 
क्यों रहे खामोश ये लब, 
मंजिलों से दूरियाँ ,
क्यों फसूं मै बेवजह ही, 
रीतियों के जाल में,
जब मेरे अपने ही मुझको,
ला रहे इस हाल में,
कर लूँ आज मुक्त मन को,
इस जहाँ के बंधनो से,
जब नहीं होता है आहत,
कोई मन के क्रंदनों से , 
-नीतू रजनीश ठाकुर 


14...बेताल पच्चीसी....चोर क्यों रोया

चोर क्यों रोया और फिर क्यों हँसते-हँसते मर गया?” अयोध्या नगरी में वीरकेतु नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में रत्नदत्त नाम का एक सा...