साँझ का धुँधलका, सब धुँधला दिखे
थक गए पाँव मन भी थकने लगा
चक्र दिन का थका टूटता सा हुआ
रात के आँचल में चुप सोने चला।
देह ने देह को फिर आवाज़ दी
मन के चिल्लाते प्रश्न कहीं दब गए
बुद्धि भावों को पलने में चुप सो गयी
इंद्रियों में चाह के नयन जग गये।
अँगुलियाँ भटकती रहीं रात भर,
पगडंडियाँ देह में नई बनती गईं
बादल सा तन – मन तिरता रहा
खिला मन का कमल पँखुरी-पँखुरी।
फिर महाजन सी देखो सुबह हो गई
कर्ज़दारों सा जीवन सहमने लगा
फिर दबे प्रश्न सूरज से जलने लगे
उत्तरों को मन छटपटाने लगा।
दीवारों से निकल आये अभावों के प्रेत
आक्षेपों का जंगल फिर उगने लगा
चाहत चरमराकर चटकने लगी
देह के दैन्य पर मन हँसने लगा।
रही सुख की सीमा वही पल दो पल
असुख धुँध सा मन पर छाया रहे
रात जिसे बाँध आँचल में मेरे गई
प्रीतम वही अजनबी सा लगा॥
- डॉ. शैलजा सक्सेना
डॉ. शैलजा सक्सेना, जन्म स्थानः मथुरा (उ.प्र.)
शिक्षा : दिल्ली विश्विद्यालय से पी. एच.डी. (शोधकार्य - "स्वातन्त्रयोत्तर हिन्दी काव्य में युद्ध की भूमिका") , एम. फिल. (शोधकार्य - "कामायनी की आलोचनाओं की समीक्षा"),
एम.ए. तथा बी.ए. (ऑनर्स) में दिल्ली विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान तथा स्वर्ण पदक
संप्रति : जानकी देवी कॉलेज, (दिल्ली विश्विद्यालय) में 1989 से 1998 तक अध्यापन करने के पश्चात विदेश प्रवास किया। आजकल टोरोंटो (कनाडा) में निवास और यहाँ के हिन्दी साहित्य समाज में पूर्ण रूप से व्यस्त। टोरोंटो में मानव संसाधन प्रबंधक के पद पर कार्यरत।
लाज़वाब ...।वाह्ह्ह....👌
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जवाब देंहटाएंरही सुख की सीमा वही पल दो पल, असुख धुँध सा मन पर छाया रहे
रात जिसे बाँध आँचल में मेरे गई, प्रीतम वही अजनबी सा लगा॥
-- इस झूठ की प्रगति की चाह में आ गए हम ये किस राह में, तुम न तुम रहे मैं न मैं रहा, मशीन बन गए इस प्रगति की कब्रगाह में.
..अब न वजूद है मेरा और न तुम कहीं शरीक हो,
पल दो पल को मेरे, फिर प्रीतम इक अजनबी से हो....
आपकी रचना को नमन....
वाकई लाज़वाब .!!!!
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंभावप्रवण मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति। मनमोहक और प्रभावशाली उत्कृष्ट कोटि की रचना। बधाई।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंप्रभावी ... मर्म को छूती हुयी रचना है ... लाजवाब रचना ...
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत खूब!!
जवाब देंहटाएंSahi kaha hai apne.
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