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गुरुवार, 29 नवंबर 2018

ख़ामोशी की आवाज...नेहा दुबे

यहाँ एक और आवाज़ है जो 
बाक़ी सुनी हुई आवाज़ों से अलग है, 
हर सुनी हुई आवाज़ को पहचानती हूँ, 
पर इस आवाज़ से अंजान हूँ,
ये आवाज़ है ख़ामोशी की आवाज़।

हाँ, ख़ामोशी की आवाज,
कोई अल्फाज़ नहीं हैं इसके
ना कोई आवाज़,
ऊपर से शांत होते हुए भी 
भीतर ही भीतर कितनी आवाज़ें हैं इसकी
क्या ये धड़कनों की आवाज़ है 
या मन मे चलते ख़्यालों की 
या कुछ और जिन से मैं खुद भी अनजान हूँ।

पर ये जो ख़ामोशी की आवाज़ है,
शाम को सुनसान सड़क से आती 
साँय साँय करते झीगुरों की आवाज़ों से,
अँधेरे के सन्नाटे को चीर कर आती
सियारों की हुआँ हुआँ की आवाज़ों से,
दूर से भौंकते कुत्तों की भौं भौं से,
भी कहीं ज़्यादा डरावनी होती हैं।

सुना है कि ख़ामोशी की इन
आवाज़ को हमें सुनना चाहिए,
मैं भी सुन रही हूँ, ख़ामोशी की आवाज़ों को
कोई भी आवाज़ साफ़ नहीं है।

कुछ आवाज़ों का पीछा करते
बड़ी दूर निकल जाती हूँ, और
फिर वो आवाज़ेंअँधेरे में कहीं
गुम जाती हैं, और मैं भी...
ऐसा कुछ वक़्त तक चलता है,
और फिर कोई आवाज़ मुझे 
उजाले की दहलीज़ पर छोड़ जाती है -
बस मैं इस रात के मंज़र में
यूँ ही आवाज़ों के बीच खेल रही हूँ।
ये आवाज़ें कैसी हैं
जिन्हें मैं सुन रही हूँ नहीं पता
ये आवाज़ें ही हैं, या शोर है, 
ख़ामोशी है, या सन्नाटा क्या है ये??
ये तो ज़ेहनी मिज़ाज़ ही तय करेगा मेरा
किसे क्या बनाना है,
पर ये आवाज़ें कभी बंद नहीं होंगी 
और ना ही ख़त्म होंगी, 
ये आती रहेंगी, 
बस कभी धीमी हो जाएँगी, 
तो कभी तेज़ आवाज में चीखेंगी चिल्लाएँगी, 
कभी बाहर से आती आवाज़ों में,
तो कभी अंदर से आती ज़ेहनी आवाज़ों में।
- नेहा दुबे

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