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शनिवार, 31 मार्च 2018

जिसका जितना आँचल था....मीना कुमारी


टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौगात मिली 

रिमझिम-रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
आँखें हँस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली 

जब चाहा दिल को समझें, हँसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली 

मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली 

होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे
जलती-बुझती आँखों में, सादा-सी जो बात मिली
स्मृतिशेष मीनाकुमारी
1 अगस्त - 31 मार्च

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

मन लताऐं बहकी सी....कुसुम कोठारी

कदम बढते गये बन
राह के साझेदार 
मंजिल का कोई
ठिकाना ना पड़ाव, 
उलझती सुलझती रही
मन लताऐं बहकी सी
तन्हाई मे लिपटी रही
सोचों के विराट वृक्षों से 
संगिनी सी, 
आशा निराशा मे
उगता ड़ूबता
भावों का सूरज
हताशा और उल्लास के
हिन्डोले मे झूलता मन 
कभी पूनम का चाॅद
कभी गहरी काली रात
कुछ सौगातें
कुछ हाथों से फिसलता आज
नर्गिस सा, बेनूरी पे रोता
खुशबू पे इतराता जीवन, 
कभी भरी महफिल
कभी बेनाम तन्हाई।
-कुसुम कोठारी

सोमवार, 26 मार्च 2018

बनबाला के गीतों सा.....महादेवी वर्मा...

26 मार्च 1907-11 सितम्बर 1988
छायावाद की एक प्रमुख स्तम्भ 
पद्म विभूषण महादेवी वर्मा 
की जयंती के अवसर पर 
उन्हें शत शत नमन और श्रद्धाजंलि।

प्रस्तुत है उनकी एक रचना
बनबाला के गीतों सा
निर्जन में बिखरा है मधुमास,
इन कुंजों में खोज रहा है
सूना कोना मन्द बतास।

नीरव नभ के नयनों पर
हिलतीं हैं रजनी की अलकें,
जाने किसका पंथ देखतीं
बिछ्कर फूलों की पलकें।

मधुर चाँदनी धो जाती है
खाली कलियों के प्याले,
बिखरे से हैं तार आज
मेरी वीणा के मतवाले;

पहली सी झंकार नहीं है
और नहीं वह मादक राग,
अतिथि! किन्तु सुनते जाओ
टूटे तारों का करुण विहाग।


बुधवार, 21 मार्च 2018

उम्मीद....पूजा


जुम्मन मियां की बकरी
जो नीम के साये तले
खूंटे से बंधी थी
ज्यूँ , आज के समाज की नारी
अपनी ही कैद में जकड़ी थी

जुम्मन मियां देते थे उसे
सुबह- शाम चारा
कभी- कभी टहला कर 
दिखा देते थे नजारा

यहीं पा रही है नारी भी आज
खुलकर भी वहीं बंधी है आज
बकरी तो फिर भी मिमिया लेती है
जुम्मन मियां का प्यार पा लेती है

किन्तु ---
नारी तो बंधी है खूंटे से बेआवाज
अपनी ही मूकता का ना जान सकी राज
मैं भी वहीं हूँ जो आज की नारी है

आह ! -- 
मुझसे आगे तो जुम्मन मियां की बकरी है
जो मिमिया तो लेती है
खुली हवा में टहलकर 
कुछ पा तो लेती है

पर मैं -- 
अवश , बेबस, असहाय सी
अपने ही घेरे में कैद
बेआवाज सिसक रही हूं
अपनी स्थिति पर आंसू बहा रही हूं

फकत जुम्मन मियां की बकरी सी
तक़दीर पाने की उम्मीद में
वही गुमनाम जीवन बिता रही हूं ।।


©पूजा

मंगलवार, 20 मार्च 2018

.लोग सच कहते हैं.....ज्योत्सना मिश्रा




लोग सच कहते हैं -
औरतें बेहद अजीब होतीं है

रात भर पूरा सोती नहीं
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं है
नींद की स्याही में
उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं
टटोलती रहतीं है
दरवाजों की कुंडियाॅ
बच्चों की चादर
पति का मन..
और जब जागती हैं सुबह
तो पूरा नहीं जागती
नींद में ही भागतीं है

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं

हवा की तरह घूमतीं, कभी घर में, कभी बाहर...
टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ
गमलों में रोज बो देती आशाऐं

पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर भी
सब के करीब होतीं हैं

औरतें सच में, बेहद अजीब होतीं हैं

कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध...

कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं
बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब
बचपन में खोई गुडिया,
जवानी में खोए पलाश,

मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती...

सहेलियों से लिए-दिये..
या चुकाए गए हिसाब
बच्चों के मोजे, पेन्सिल किताब

खोलती बंद करती खिड़कियाँ
क्या कर रही हो?
सो गयी क्या ?
खाती रहती झिङकियाँ

न शौक से जीती है ,
न ठीक से मरती है
सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

कितनी बार देखी है...
मेकअप लगाये,
चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी,
वो ब्यूटीशियन,
वो भाभी, वो दीदी...

चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर
और कभी दिख ही जाती है
कॉरीडोर में, जल्दी जल्दी चलती,
नाखूनों से सूखा आटा झाडते,

सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल मे आई वो लेडी डॉक्टर
दिन अक्सर गुजरता है शहादत में
रात फिर से सलीब होती है...

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं

सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं
उम्र भर हथेलियों में
तितलियां संजोतीं हैं

और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं
फिजाएं सचमुच खिलखिलातीं हैं

तो ये सूखे कपड़ों, अचार, पापड़
बच्चों और सारी दुनिया को
भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं...

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं है
अनगिनत खाईयों को
अनगिनत पुलो से पाट देतीं है.

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।

ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों, जंगलों में
नदी की तरह बहती...
कोंपल की तरह फूटती...

जिन्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या?
ऐसा कोई करता है क्या?

सच मे, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं..
-ज्योत्सना मिश्रा
वैचारिकी  संकलन
प्रस्तुतिः नीतू ठाकुर, 

गुरुवार, 8 मार्च 2018

तुम कनक किरन.................जयशंकर प्रसाद

तुम कनक किरन के अंतराल में
लुक छिप कर चलते हो क्यों ?

नत मस्तक गवर् वहन करते
यौवन के घन रस कन झरते
हे लाज भरे सौंदर्य बता दो
मोन बने रहते हो क्यो?

अधरों के मधुर कगारों में
कल कल ध्वनि की गुंजारों में
मधु सरिता सी यह हंसी तरल
अपनी पीते रहते हो क्यों?

बेला विभ्रम की बीत चली
रजनीगंधा की कली खिली
अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल
कलित हो यों छिपते हो क्यों?
-जयशंकर प्रसाद

बुधवार, 7 मार्च 2018

ज़ख़्म......तरूण सोनी "तन्वीर"


खोदता है
जब भी
हृदय की ज़मीन को
दर्द की कुदाल से
तब
फूटता है
एक स्रोत
शब्दों का।

और
स्फुटित होती है
स्वतः
आहों और
वेदना की स्वरलहरों से
कविता
जो करती है माँग
नये इन्क़लाब की
मरता देख
इन्सानियत को
इन मरी आत्मा वाले
ज़िन्दा इन्सानों से।।

-तरूण सोनी "तन्वीर"

मंगलवार, 6 मार्च 2018

ताँका....डॉ. रमा द्विवेदी


1.
कच्चे रंग हैं
मिलते बाज़ार में
पक्का रंग तो
अपने ही अन्दर
ढूँढते क्यों बाहर?

2.
प्रेम सौगात
हर रंग ले आती
रहे न कमी
मन ऊपर-नीचे 
सराबोर हो जाए।

3.
एक फ्रेम में
दर्पण के टुकड़े
जैसा है घर
बिस्तर बँटे हुए
सुख-दुःख भी बँटे।

4.
हर आदमी
विशिष्ट व अनोखा
किसी के जैसा
नहीं बनने में ही
उसकी पहचान।

5.
जीवन व्याख्या
बौद्धिकता से नहीं
निजत्व बोध
अंतस में मिलता
बाहर क्यों ढूँढता?

6.
मन को भाए
हर रंग सुन्दर
प्रेम रंग हो
साथ हो प्रियतम
मनुआ नाचे गाए।

7.
रंगों का रिश्ता
मन:स्थिति से होता
वस्तु से नहीं
मन संतुलित हो
हर रंग छू जाए।

8.
फूलों के रंग
उदासी हर लेते
खिलखिलाते
और यह कहते
हँसो और हँसाओ।

9.
जतन करो
हर रंग सहेजो
फीका न पड़े
बनी रहे मिठास
जीवन भर पास।

10.
रंग सन्देश
ईर्ष्या -द्वेष मिटाओ
गले लगाओ
सब कुछ भूल के
रंगों में डूब जाओ।

11.
प्यार का रंग
चढ़े जो एक बार
कभी न छूटे
निखरता ही जाए
समय रीत जाए।
-डॉ. रमा द्विवेदी

सोमवार, 5 मार्च 2018

क्या भूली??..........डॉ. शैलजा सक्सेना

खाने की मेज से
रसोई तक,
रसोई से खाने की मेज तक
कितने ही फेरे ले चुकी वो,
याद नहीं.. 

चलते-चलते रुकती है बीच में
भूला सा कुछ याद दिलाने की 
कोशिश में स्वयं को.. 

क्या ढूँढ रही थी???
सब्जी काटने का चाकू
या
अपना कोई भूला सपना?? 

कहाँ रख कर भूल गई???
नमक की शीशी
या 
अपना अस्तित्त्व??

क्या लाने उठी थी??
पानी का गिलास 
या
अपनी बची -खुची ताकत?? 

भूली सी खड़ी रहती है कुछ क्षण,
फिर पुकार पर किसी की
चल पड़ती है
सोचना भूल कर। 

घूमती है उसी घेरे में,
ज़िंदगी के फेरे में..
-डॉ. शैलजा सक्सेना

रविवार, 4 मार्च 2018

हालात.......आशुतोष शर्मा

एक उम्र तक हालात से लड़ना चाहिए
फिर बेझिझक समझौता कर लेना चाहिए।

यह तुझपर है अपने को बरकरार रख
वक़्त की ठोकर से नहीं बिखरना चाहिए।

आँसू बहा ग़मों की क्यों नुमाईश लगाएँ
दर्द अपना है अपने को सहना चाहिए।

ख़ुशक़िस्मत है तुझे बस नाकामी ही मिली
इस आग में तुझे ओर निखरना चाहिए।

भटक न जाएं कहीं क़दम क़ामयाबी से 
इसलिए तंग रस्तों से गुज़रना चाहिए।
-आशुतोष शर्मा

शनिवार, 3 मार्च 2018

सुरमई संध्या का आंचल...कुसुम कोठारी

शाम का ढलता सूरज
उदास किरणें थक कर
पसरती सूनी मुंडेर पर
थमती हलचल धीरे धीरे
नींद केआगोश मे सिमटती
वो सुनहरी चंचल रश्मियां
निस्तेज निस्तब्ध निराकार
सुरमई संध्या का आंचल
तन पर डाले मुह छुपाती
क्षितिज के उस पार अंतर्धान
समय का निर्बाध चलता चक्र
कभी हंसता कभी  उदास
ये प्रकृति का दृश्य है या फिर
स्वयं के मन का परिदृश्य
वो ही प्रतिध्वनित करता जो
निज की मनोदशा स्वरूप है
भुवन वही परिलक्षित करता
जो हम स्वयं मन के आगंन मे
सजाते है खुशी या अवसाद
शाम का ढलता सूरज क्या
सचमुच उदास....... ?
कुसुम कोठारी 

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

शब्द कहाँ से लाऊँ वो? ...........रचना सिंह

शब्द 
जो गले मे अटकते हैं 
शूल बनकर दिल को 
चुभते हैं

शब्द 
जो कलम से फिसलते हैं 
फाँस बनकर दूसरो को
लगते हैं

शब्द 
जो नहीं भरमाते हैं 
सबको पसंद नहीं 
आते हैं

शब्द 
जो मन भाते हैं 
सब को पसंद
आते हैं

शब्द 
जो मन भाते हैं 
वोही भरमाते हैं

शब्द
जो भावना की
स्याही से
लिखे जाते हैं
शीतलता दे जाते हैं

शब्द 
कहाँ से लाऊँ वो 
जो लाये तुमको
मिलाये हमको
-रचना सिंह

गुरुवार, 1 मार्च 2018

होली हाइकु.......सपना मांगलिक


1
खिले पलाश
भरे अंग-प्रत्यंग
प्रेम सुवास।

2
संग सजना
यूँ खेलो सखी होरी
तोड़ वर्जना।

3
होली के रंग
मिलाते दिल टूटे
वर्षों के रूठे।

4
नैन गुलाब
बिन पिए शराब
चढ़े फाग में।

5
सरसों फूल
याद आये फाग में
प्यारी सी भूल।

6
प्रेम का देता
जग को उपहार
होली त्यौहार।

7
ऋतू के संग
बदले अपने भी
लो रंग-ढंग।

8
मीत से प्रीत
गाओ मिलन गीत
होली है आई।

9
बह निर्झर
जा रहा पतझड़
ओ मधुमास।

10
राग - वैराग
भुला दें हम सब
होली में आज।

11
तरु पे खग
कैसी छाई रौनक़
फाग ग़ज़ब।


12
फड़कें अंग
बजे होली में जब
प्रेम मृदंग।
-सपना मांगलिक

14...बेताल पच्चीसी....चोर क्यों रोया

चोर क्यों रोया और फिर क्यों हँसते-हँसते मर गया?” अयोध्या नगरी में वीरकेतु नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में रत्नदत्त नाम का एक सा...