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बुधवार, 21 मार्च 2018

उम्मीद....पूजा


जुम्मन मियां की बकरी
जो नीम के साये तले
खूंटे से बंधी थी
ज्यूँ , आज के समाज की नारी
अपनी ही कैद में जकड़ी थी

जुम्मन मियां देते थे उसे
सुबह- शाम चारा
कभी- कभी टहला कर 
दिखा देते थे नजारा

यहीं पा रही है नारी भी आज
खुलकर भी वहीं बंधी है आज
बकरी तो फिर भी मिमिया लेती है
जुम्मन मियां का प्यार पा लेती है

किन्तु ---
नारी तो बंधी है खूंटे से बेआवाज
अपनी ही मूकता का ना जान सकी राज
मैं भी वहीं हूँ जो आज की नारी है

आह ! -- 
मुझसे आगे तो जुम्मन मियां की बकरी है
जो मिमिया तो लेती है
खुली हवा में टहलकर 
कुछ पा तो लेती है

पर मैं -- 
अवश , बेबस, असहाय सी
अपने ही घेरे में कैद
बेआवाज सिसक रही हूं
अपनी स्थिति पर आंसू बहा रही हूं

फकत जुम्मन मियां की बकरी सी
तक़दीर पाने की उम्मीद में
वही गुमनाम जीवन बिता रही हूं ।।


©पूजा

3 टिप्‍पणियां:

  1. मूक अंतर वेदना।
    यथार्थ का सटीक चित्रण ।
    बहुत सुंदर भाव प्रधान रचना नारी का अस्तित्व क्या और कितना और क्यो वाह! ! पूजा जी।

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