जब टूटता है दिल
धोखे फरेब से
अविश्वास और संदेह से
नफरतों के खेल से
तो लहराता है दर्द का समंदर
रह जाते हैं हतप्रभ
अवाक् इंसानों के रूप से
सीधी सरल निष्कपट जिन्दगी
पड़ जाती असमंजस में
बहुरूपियों की दुनिया फिर
रास नहीं आती
उठती हैं अबूझ प्रश्नों की लहरें
आता है ज्वार फिर दिल के समंदर में
भटकता है जीवन
तलाशते किनारा
जीवन की नैया को
नहीं मिलता सहारा
हर ओर यही मंजर है
दिल में चुभता कोई खंजर है
मरती हुई इंसानियत से
दिल जार जार रोता है
ऐसे भी भला कोई
इंसानियत खोता है
जब उठता दर्द का समंदर
हर मंजर याद आता है
डूबती नैया को कहां
साहिल नजर आता है!!!
-अभिलाषा चौहान