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गुरुवार, 28 जून 2018

दर्द का समंदर....अभिलाषा चौहान


जब टूटता है दिल
धोखे फरेब से
अविश्वास और संदेह से
नफरतों के खेल से
तो लहराता है दर्द का समंदर
रह जाते हैं हतप्रभ
अवाक् इंसानों के रूप से
सीधी सरल निष्कपट जिन्दगी
पड़ जाती असमंजस में
बहुरूपियों की दुनिया फिर
रास नहीं आती

उठती हैं अबूझ प्रश्नों की लहरें
आता है ज्वार फिर दिल के समंदर में
भटकता है जीवन
तलाशते किनारा
जीवन की नैया को
नहीं मिलता सहारा

हर ओर यही मंजर है
दिल में चुभता कोई खंजर है
मरती हुई इंसानियत से
दिल जार जार रोता है
ऐसे भी भला कोई
 इंसानियत खोता है
जब उठता दर्द का समंदर
हर मंजर याद आता है
डूबती नैया को कहां
साहिल नजर आता है!!!
-अभिलाषा चौहान


बुधवार, 27 जून 2018

बूढ़ी आंखें.....अनुराधा चौहान


परदेश में बसे हुए बच्चों की राह देखते हुए गांव में बसे बूढ़े मां-बाप के दर्द को कविता के द्वारा व्यक्त करने की कोशिश की है ।
बूढ़ी आंखों में आंसू
झुर्रियों से भरा चेहरा
मन के कोने में दबी आशा
पगडंडियों को निहारती आंखें

हर आहट बैचेन करती
शायद अब आए बच्चे मेरे
चारपाई पर बैठ यही सोचते
बीत रहे साल दर साल
बड़े जतन से था पाला
पूरी की थी हर ख्वाहिश
बुढ़ापे का बनेंगे सहारा
सोचकर भेजा था परदेश

वो घर से बाहर क्या निकले
बाहर की दुनिया में खो गए
अपनी गृहस्थी बसा कर वो
मां-बाप की दुनिया भूल गए

शायद वापस न आए तो
सोचकर मन घबरा जाए
बूढ़ी आंखों से छलक कर
आंसू गालों पर आ जाएं

-अनुराधा चौहान


मंगलवार, 26 जून 2018

सुरमई शाम का मंज़र....कुमार अनिल

सुरमई शाम का मंज़र होते, तो अच्छा होता
आप दिल के भी समंदर होते, तो अच्छा होता

बिन मिले तुमसे मैं लौट आया, कोई बात नहीं
फिर भी कल शाम को तुम घर होते, तो अच्छा होता

माना फ़नकार बहुत अच्छे हो तुम दोस्त मगर
काश इन्सान भी बेहतर होते , तो अच्छा होता

हम से बदहालों, नकाराओं, बेघरों के लिए
काश फुटपाथ ये बिस्तर होते, तो अच्छा होता

मैं जिसमे रहता भरा ठंडे पानियों की तरह
आप माटी की वो गागर होते, तो अच्छा होता

यूँ तो जीवन में कमी कोई नहीं है, फिर भी
माँ के दो हाथ जो सर पर होते, तो अच्छा होता

तवील रास्ते ये कुछ तो सफ़र के कट जाते
तुम अगर मील का पत्थर होते, तो अच्छा होता

तेरी दुनिया में हैं क्यूँ अच्छे-बुरे, छोटे-बड़े
सारे इन्सान बराबर होते तो, अच्छा होता

इनमें विषफल ही अगर उगने थे हर सिम्त 'अनिल'
इससे तो खेत ये बंजर होते , तो अच्छा होता
-कुमार अनिल 

रविवार, 24 जून 2018

बीजांकुर....कुसुम कोठारी

जलधर भार से नीचे झुके
चंचल हवा ने आंचल छेड़ा
अमृत बरसा तृषित धरा पर
माटी विभोर हो सरसी हुलसी
हृदय तल मे जो बीज थे रखे
उन्हें प्यार से सींचा स्नेह दिया
क्षिती दरक ने लगी अति नेह से
एक बीजांकुर प्रस्फुटित हुवा
सहमा सा रेख से बाहर झांके
खुश हो अंगड़ाई ली देखा उसने
चारों और उसके जैसे नन्हे नरम,
कोमल नव पल्लव चहक रहे
धरित्री की गोद पर खेल रहे
पवन झकोरों पर झूल रहे
  अंकुर  मे  स्फुरणा जगी
अंतः प्रेरणा लिये बढता गया।

सच ही है धरा को चीर अंकुर
जब पाता उत्थान है
तभी मिलता मानव को
जीवन का वरदान
सींचता वारिध उस को
कितने प्यार से
पोषती वसुंधरा , करती
उसका श्रृंगार है
एक अंकुर के खिलने से
खिलता संसार है।
-कुसुम कोठारी

शनिवार, 9 जून 2018

हर क्षण बस मंगल गाती........सीमा 'सदा' सिंघल

 
घर की दहलीज़ ने
आना-जाना और निभाना देखा
बन्द किवाड़ों ने सिर्फ़
अपना वजूद जाना
ये भूलकर की उन्हें थामकर
रखने वाली दहलीज़ 
कोई साँकल नहीं जो हर बार
बजकर या कुंदे पे चढ़कर
अपने होने का अहसास कराती
वो तो बस मौन ही
अपना होने का फ़र्ज निभाती है !!
...
खुशियों में रौनक बन जाती 
त्योहारों पे दीप सजा
जगमग हो जाती 
बने रंगोली जब भी
ये फूली न समाती
रंग उत्सव के पूछो इससे
हर क्षण बस मंगल गाती !!!!
-सीमा 'सदा' सिंघल

14...बेताल पच्चीसी....चोर क्यों रोया

चोर क्यों रोया और फिर क्यों हँसते-हँसते मर गया?” अयोध्या नगरी में वीरकेतु नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में रत्नदत्त नाम का एक सा...