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रविवार, 31 दिसंबर 2017

एक भिखारी दुखियारा....प्रस्तुतिः नीतू ठाकुर


एक भिखारी दुखियारा
भूखा, प्यासा
भीख मांगता
फिरता मारा-मारा!

'अबे काम क्यों नहीं करता?'
'हट......हट!!'
कोई चिल्लाता,
कोई मन भर की सीख दे जाता।
पर.....पर....
भिखारी भीख कहीं ना पाता!

भिखारी मंदिर के बाहर गया
भक्तों को 'राम-राम' बुलाया
किसी ने एक पैसा ना थमाया
भगवन भी काम ना आया!

मस्जिद पहुँचा
आने-जाने वालों को दुआ-सलाम बजाया
किसी ने कौडी ना दी
मुसीबत में अल्लाह भी पार ना लाया!

भिखारी बदहवास
कोई ना बची आस
जान लेवा हो गई भूख-प्यास।
जाते-जाते ये भी आजमा लूँ
गुरूद्वारे भी शीश नवा लूं!
'सरदार जी, भूखा-प्यासा हूं।।।
'ओए मेरा कसूर अ?'
भिखारी को लगा किस्मत बडी दूर है। 

आगे बढा़....
तभी एक देसी ठेके से बाहर निकलता शराबी नजर आया
भिखारी ने फिर अपना अलाप दोहराया।। 
'बाबू भूखे को खाना मिल जाए
तेरी जोडी बनी रहे, तू ऊँचा रूतबा पाए।'

'अरे भाई क्या चाहिए'
'बाबू दो रूपया ---
भूखे पेट का सवाल है!'
शराबी जेब में हाथ डाल बुदबुदाया।।।
'अरे, तू तो बडा बेहाल है!'
'बाबू दो रूपये......'
'अरे दो क्या सौ ले।'
'बाबू बस खाने को......दो ही.....दो ही काफ़ी है।'
'अरे ले पकड सौ ले...
पेट भर के खाले......
बच जाए तो ठररे की चुस्की लगा ले।।।'

हाथ पे सौ का नोट धर शराबी आगे बढ ग़या।

भिखारी को मानो अल्लाह मिल गया।

'तेरी जोडी बनी रहे, तू ऊँचा रूतबा पाए!'
भिखारी धीरे से घर की राह पकडता है।
रस्ते में फिर मंदिर, मस्जिद और गुरूद्वारा पड़ता है।

भिखारी धीरे से बुदबुदाता है.......
'वाह रे भगवन्.......
तू भी खूब लीला रचाता है
मांगने वालों से बचता फिरता, इधर-उधर छिप जाता है
रहता कहीं हैं
बताता कहीं है
आज अगर ठेके न जाता
खुदाया, मैं तो भूखों ही मर जाता!
इधर-उधर भटकता रहता
तेरा सही पता भी न पाता
तेरा सही पता भी न पाता!
तेरा सही पता भी न पाता!!

- रोहित कुमार 'हैप्पी'
प्रस्तुतिः नीतू ठाकुर

शनिवार, 30 दिसंबर 2017

उनके बालों से गिर रही बूँदें...रामबाबू रस्तोगी

घर में बैठे रहें तो भीगें कब।
बारिशों से बचें तो भीगें कब॥

पत्थरों का मिज़ाज रख के हम।
यूँ ही ऐंठे रहें तो भीगें कब॥

आँसुओं का लिबास आँखों पर।
ये भी सूखी रहें तो भीगें कब॥

जिस्म कपडें का जान पत्तों की।
हम भी काग़ज़ बनें तो भीगें कब॥

उनके बालों से गिर रही बूँदें।
हम ये शबनम पियें तो भीगें कब॥

तेरे हाथों में हाथ साहिल पर।
अब न आगे बढ़ें तो भीगें कब॥

दूर तक बादलों का गीलापन।
और हम घर चलें तो भीगें कब॥
-रामबाबू रस्तोगी 


शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

पत्थर की पूजा करते है ....नीतू ठाकुर

सूखे पत्ते बंजर धरती 
क्या नजर नहीं आती तुमको 
ये बेजुबान भूखे प्यासे 
क्या खुश कर पायेंगे तुमको 
हे इंद्रदेव, हे वरुणदेव 
किस भोग विलास में खोये हो 
या किसी अप्सरा की गोदी में 
सर रखकर तुम सोये हो 
करते है स्तुति गान तेरा 
अब तो बादल बरसाओ ना 
तुम देव हो ये न भूलो तुम 
कुछ तो करतब दिखलाओ ना  
अंधे बनकर बैठे त्रिदेव 
विपदा को पल पल देख रहें 
अब कौन बचाने जायेगा 
मन ही मन मेँ ये सोच रहे
पत्थर की पूजा करते है 
क्या पत्थर ही बन जाओगे 
या कृपा करोगे दुनिया पर 
जल धारा भी बरसाओगे 
कर जोड़ करें तुमसे विनती 
अब और कहर बरसाओ ना 
तुम दया करो हम पर स्वामी 
बारिश बनकर फिर आओ  ना 

- नीतू ठाकुर 

गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

पिता.....नादिर खान


वो छुपाते रहे अपना दर्द
अपनी परेशानियाँ
यहाँ तक कि
अपनी बीमारी भी….

वो सोखते रहे परिवार का दर्द
कभी रिसने नहीं दिया
वो सुनते रहे हमारी शिकायतें
अपनी सफाई दिये बिना ….

वो समेटते रहे
बिखरे हुये पन्ने
हम सबकी ज़िंदगी के …..

हम सब बढ़ते रहे
उनका एहसान माने बिना
उन पर एहसान जताते हुये
वो चुपचाप जीते रहे
क्योंकि वो पेड़ थे
फलदार
छायादार ।
- नादिर खान
किताबें बोलती हैं


बुधवार, 27 दिसंबर 2017

आँसू में ना ढूँदना हमें....पवन सिंह


आँसुओं में ना ढूँदना हमें,
दिल में हम बस जाएँगे,
तमन्ना हो अगर मिलने की,
तो बंद आँखों में नज़र आएँगे.

लम्हा लम्हा वक़्त गुजर जाएँगा,
चँद लम्हों में दामन छूट जाएगा,
आज वक़्त है दो बातें कर लो हमसे,
कल क्या पता कौन आपके ज़िंदगी में आ जाएगा.

पास आकर सभी दूर चले जाते हैं,
हम अकेले थे अकेले ही रह जाते हैं,
दिल का दर्द किससे दिखाए,
मरहम लगाने वाले ही ज़ख़्म दे जाते हैं,

वक़्त तो हमें भुला चुका है,
मुक़द्दर भी ना भुला दे,
दोस्ती दिल से हम इसीलिए नहीं करते,
क्यू के डरते हैं,कोई फिर से ना रुला दे,

ज़िंदगी मैं हमेशा नये लोग मिलेंगे,
कहीं ज्यादा तो कहीं कम मिलेंगे,
ऐतबार ज़रा सोच कर करना,
मुमकिन नही हर जगह तुम्हे हम मिलेंगे.

खुशबू की तरह आपके पास बिखर जाएँगे,
शुकुन बन कर दिल मे उतर जाएँगे,
महसूस करने की कोशिश तो कीजिए,
दूर होते हुए भी पास नजर आएँगे
-पवन सिंह

मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

हवा लगी पश्चिम की...सतीष शशांक

हवा लगी पश्चिम की ,
सारे कुप्पा बनकर फूल गए । 
ईस्वी सन तो याद रहा , 
पर अपना संवत्सर भूल गए ।। 
चारों तरफ नए साल का , 
ऐसा मचा है हो-हल्ला । 
बेगानी शादी में नाचे ,
जैसे कोई दीवाना अब्दुल्ला ।।
धरती ठिठुर रही सर्दी से , 
घना कुहासा छाया है । 
कैसा ये नववर्ष है , 
जिससे सूरज भी शरमाया है ।। 
सूनी है पेड़ों की डालें , 
फूल नहीं हैं उपवन में । 
पर्वत ढके बर्फ से सारे , 
रंग कहां है जीवन में ।। 
बाट जोह रही सारी प्रकृति...
-सतीष शशांक

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

नेह / ज्ञान .....डॉ. इन्दिरा गुप्ता


भौंचक रहा गये ज्ञानी ऊधौ 
बुद्धि लगी चकराने 
भोली ग्वालिन अनपढ़ जाहिल 
कैसो ज्ञान बखाने ! 

एक तमक कर बोली ग्वालिन 
क्या आये हो लेने 
मूल धन अक्रूर ले गये 
तुम क्या आये ब्याज के लाने ! 

कुब्जा के कहे आये हो तो 
इतनी बात समझ लो 
दूध दही मै फर्क ना जाने 
वाकी बातन पर का जानो ! 

हमरो मारग नेह को 
फूलन की सी क्यारी 
निर्गुण  कंटक बोय के 
काहे बर्बाद कर रहे यारी ! 

तुम तो ज्ञानी ध्यानी ऊधौ 
एक बात कहो साँची 
कहीँ सुनी नारी जोग लियो है 
का वेद पुराण ना बाँची ! 

जाओ अब और ना रुकना 
बात बिगड़ जायेगी 
कान्हा पे रिस आय रही है 
तुम पे उतर जायेगी ! 

एक तो इति दूर बैठे है 
ऊपर से ज्ञान बघारे 
निर्गुण -सगुण को भेद बतरावे
का हमें बावरी जाने ! 

नेह -ज्ञान से एक चुननो थो 
नेह भाव  चुन लीनो 
बीते उमरिया अब चाहे जैसी 
अब नहीँ पालो बदलनौ ! 

कहना जाके श्याम को 
तनि चिंतित ना  होय 
आनौ हो तो खुद ही आये 
और ना भेजे कोय ! 

डॉ. इन्दिरा गुप्ता ✍

रविवार, 24 दिसंबर 2017

हाइकु भूमि....रामशरण महर्जन

मन के रंग
रंग देता जन को
हाइकु भूमि |

उड़ते पंछी
सवारते जीवन
स्मृति के पन्ने |

अमूल्य देह
मत फेंको वक्त पे
जीवन डालो |

बात बात को
ठुकराना नहीं तू
शब्द बाण से |

खिलौना नहीं
और से मत तौलो
बड़ी है ज्यान |

चंचल बच्चें
रंग भरता  हमें
रूठी पल में |

दुखों के आँशु
सवारता जिंदगी
शक्ति बना लो |

प्यार की डोरें
बांधता जन्म-जन्म
रिश्तें हमारा |

डूबता रहा
पहचाने आप को
झील हाइकु |

जीनें सहारा
मुश्किलों से सामना
ये हुई बात |

जगाते रहो
उम्मीदों को दीप पे
फूलों के वर्षा |
काठमण्डू
नेपाल





शनिवार, 23 दिसंबर 2017

ग़ुम मासूमियत.... श्वेता सिन्हा

ज़िदगी की शोर में 
गुम मासूमियत
बहुत ढ़ूँढ़ा पर 
गलियों, मैदानों में
नज़र नहीं आयी,
अल्हड़ अदाएँ,
खिलखिलाती हंसी
जाने किस मोड़ पे
हाथ छोड़ गयी,
शरारतें वो बदमाशियाँ
जाने कहाँ मुँह मोड़ गयी,
सतरंगी ख्वाब आँखों के,
आईने की परछाईयाँ,
अज़नबी सी हो गयी,
जो खुशबू बिखेरते थे,
उड़ते तितलियों के परों पे,
सारा जहां पा जाते थे,
नन्हें नन्हें सपने,
जो रोते रोते मुस्कुराते थे,
बंद कमरों के ऊँची
चारदीवारी में कैद,
हसरतों और आशाओं का
बोझा लादे हुए,
बस भागे जा रहे है,
अंधाधुंध, सरपट
ज़िदगी की दौड़ में 
शामिल होती मासूमियत,
बस आसमां छूने की
जल्दबाजी है।

          #श्वेता🍁

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

ये अश्क आख़री है.......बदरूल अहमद

मोहब्बत का मेरा यह सफर आख़िरी है
ये कागज, ये कलम, ये गजल आख़िरी है

फिर ना मिलेंगे अब तुमसे हम कभी
ये मिलना, ये बिछड़ना, ये अश्क आख़री है

मोहब्बत का मेरा यह सफर आख़री है
ऐ मुसाफिर जाने से पहले सुन तो ज़रा

अपनी हाथों से मुझे दफना जाना जरूर
मेरी ख्वाहिशाें का ये मुन्तबर आख़री है

फिर ना मिलेंगे अब तुमसे हम कभी
क्योंकि तेरे दर्द का अब ये सितम आख़िरी है।

मोहब्बत का मेरा यह सफर आख़री है
ये कागज, ये कलम, ये गजल आख़री है

-बदरूल अहमद... ✍️

गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

चाँद और मैं......कुलदीप शर्मा



चाँद और मैं*
"दीप"

   चाँद  कल रात भटक गया था
   राह और मंजिल की चाह में
   उतर आया जमीन पर
   जमीन को आसमान समझ कर
   भूला तो मैं भी था
   रास्ता  भी और मंजिल,  दोनों
   चाँद   और मैं,  साथ जो हो लिए
   चाँद मुझसे,  और , मैं चाँद से
   यूँ ही मुखातिब रहे  रात भर
   तारों सितारों जड़ी ओढ़नी पहने
   जगमग जगमग  चमक दमक कर 
   नजर  भी  सज धज कर
   पहुंची चौबारे पर ,जहाँ
   एक "दीप"  सपनों का
   बहुत सा तेल और संग  इक बाती 
   तिल तिल जल रही थी   और 
   संग जल रहे थे 
   दो इंसान,  उनकी पूर्ण पहचान
   रूह खामोश और यूँ ही उसके
   खामोश होते होते 
   जिस्म जल गए    और 
   रात, चुपके से रो पड़ी दो आंसू
   ओस की नम महीन  महीन बूंदें 
   आस बन कर, उश्वास बन कर
    स्याह केशों से ढल कर
    पलको के नरम रूओं में ठहरी 
    और   ढल कर
     मीठे होठों का "रंग"नमकीन कर गईं
    और यह रंग सुर्ख हो कर
     हौले से, नन्हे नन्हे, पग भर कर
     एक दूजे में भर गया,  यूँ
      पूरा इक समुद्र नमकीन कर गया
      नन्ही  दो मछलियां  बार बार
      मुख उठाती
      आसमान, चूमती और फिर 
       खारे पानी में डूब कर
       वेहोश हो जाती  और यूँ ही
       कोल कलोल की मुद्राओं के ऋण से
       उऋण होकर 
       खो जाती, सो जाती
       विलीन हो जाती
       असीम अनन्त आकाश में
       अस्तित्वहीन हो कर,
        ख़ुशी से कर समर्पण उस शून्य में
        शून्य, जो अब एक है, 
        दोनों का एक, अविभाजित,पराजित सा
        एक, बस एक, होता सारा आकाश, 
        नीरवता भंग करता शोर
        दूर प्राचीर पर, भोर का शोर  अब
        घुलने लगा ,आकाश भी खुलने लगा 
        अँधेरा स्याह  भी  धुलने लगा 
        चाँद यूँ ही मद्दम सा चमकता हुआ 
        रौशनी  की चाह में,भटकता हुआ
         खो गया है,   शायद
         सो गया है,   थक कर
         मेरी तरह।

"दीप"
कुलदीप शर्मा


बुधवार, 20 दिसंबर 2017

वो आखरी खत ... नीतू ठाकुर



वो आखरी खत जो तुमने लिखा था
तेरे हर खत से कितना जुदा था


मजबूरियों का वास्ता देकर मुकर जाना तेरा
गुनहगार वो वक़्त था या खुदा था


बड़ी मुश्किल से समेटा था खुद को
वो पल भी मुश्किल बड़ा था


शिकायत करते भी तो किस से करते

जब अपना मुकद्दर ही जुदा था

जल रहे थे ख्वाब मिट रहे थे अरमान
तू लाचार और मेरा प्यार बेबस खडा था


मेरा दिल ही जनता है क्या गुजरी थी

जब आंसुओं में डूबा वो आखरी खत पढ़ा था
- नीतू ठाकुर

मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

एक तो महकी फिजा है ......डॉ. इन्दिरा गुप्ता

रफ्ता -रफ्ता, बेलौस मेरी 
रूहें कलम लिखने लगी 
हम नशीनो नज़्म मेरी 
यकसां गुनगुनाने भी लगी ! 

छू गई चेहरे को मेरी 
बज़्म की संदल हवा 
बिन लिखे अल्फाज़ मेरे 
मुझको सुनाने सी लगी ! 

राहते -तलब है कोई 
या इश्किया बीमार है 
बेवजह रुखसार पे 
रूनाइयाँ छाने लगी ! 

एक तो महकी फिजा है 
उस पर तरन्नुम सा खयाल 
छन्न से कुछ यादें खनक के 
तन्हाई सजाने सी लगी ! 

डॉ. इन्दिरा गुप्ता ✍

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

लफ्ज बिखरे है ...डॉ. इन्दिरा गुप्ता


मसि बहती 
हिय पन्नॊं पर 
कहीँ कम 
कहीँ ज्यादा !
पन्ना गीला 
गीला सा है 
कहीँ कम 
कहीँ ज्यादा !
मन भी तन्हा
दुखा उम्र भर 
कहीँ कम 
कहीँ ज्यादा !
सन्नाटा सा 
पसरा है 
कहीँ कम 
कहीँ ज्यादा !
बेचैन लकीरें 
कहती है 
कहीँ कम 
कहीँ ज्यादा !
जाने कितने 
मौसम आये 
कहीँ कम 
कहीँ ज्यादा !
अब के भी 
सावन सरसाये 
कहीँ कम 
कहीँ ज्यादा 
जाने कहाँ 
लफ्ज बिखरे हैं 
कभी कम 
कभी ज्यादा!
मसि मेरी 
सूखी चट्के है 
कहीँ कम 
कहीँ ज्यादा !!

-डॉ. इन्दिरा गुप्ता

रविवार, 17 दिसंबर 2017

अनाथ पत्ता......डॉ. आरती स्मित


मैं हूँ 
शाख- विहीन 
एक अनाथ पत्ता!
बेबुनियाद --–अस्तित्वहीन।
कल तक,
मैं था 
निश्चिंत, प्रमुदित 
पेड़ की शाख से जुड़ा 
जीवन–रस पाता हुआ;
कल तक,
समझ ना सका महत्व
जड़ से जुड़ाव का;
वंश के पोषण का, 
विद्रोह की आँधी चली 
और मैं,
दिशाहीन!
प्रतिकूल दशा में 
क्षत-विक्षत पड़ा हूँ 
भूमि पर 
और कोई 
देखता तक नहीं।



- डॉ. आरती स्मित

शनिवार, 16 दिसंबर 2017

कोमल सर्दी की गुलाबी ठिठुरन................स्मृति आदित्य


कोमल सर्दी की गुलाबी ठिठुरन में
नर्म शॉल के गर्म एहसास को लपेटे 
तुम्हारी नीली छुअन 
याद आती है, 

याद 
जो बर्फीली हवा के 
तेज झोंकों के साथ 
तुम्हें मेरे पास लाती है, 
तुम नहीं हो सकते मेरे 
यह कड़वा आभास 
बार-बार भुला जाती है, 

जनवरी की शबाब पर चढ़ी ठंड 
कितना कुछ लाती है 
बस, एक तुम्हारे सिवा, 
तुम जो बस दर्द ही दर्द हो 
कभी ना बन सके दवा, 
नहीं जान सके 
तुम्हारे लिए 
मैंने कितना कुछ सहा, 
फिर भी कुछ नहीं कहा... 
-स्मृति आदित्य

शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

आप ईमान ढूंढते हो....कुसुम कोठारी

ये क्या कि पत्थरों के शहर में 
शीशे का आशियाना ढूंढते हो!

आदमियत का पता तक नही
गजब करते हो इंसान ढूंढते हो !


यहाँ पता नही किसी नियत का
ये क्या कि आप ईमान ढूंढते हो !

आईनों मे भी दगा भर गया यहां 
अब क्या सही पहचान ढूंढते हो !

घरौदें रेत के बिखरने ही तो थे
तूफानों पर क्यूं इल्जाम ढूंढते हो !

जहां बालपन भी बुड्ढा हो गया 
वहां मासुमियत की पनाह ढूढते हो!

भगवान अब महलों मे सज के रह गये 
क्यों गलियों मे उन्हें सरे आम ढूंढते हो। 
- कुसुम कोठारी

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

पुराने अखबार में रात ....डॉ. इन्दिरा गुप्ता

खबर ओढ़ कर सो गई 
नई खबर चुपचाप 
कल रात फुटपाथ पर 
पैदा हुई नई खबर शीत काल ! 

सिकुड़ कर अखबार के 
एक कॉलम को भर गई 
पुराने अखबार में रात 
एक ज़िंदगी लिपट गई ! 

भूख की भागम भागी 
और बाप की जिम्मेदारी 
सब को निजात मिल गई 
फुटपाथ खाली कर गई ! 

आज की ताजा खबर 
रात एक और मौत 
ठिठुरती रात निगल गई 
अखबार का कॉलम भर गई ! ! 

डॉ. इन्दिरा गुप्ता ✍

बुधवार, 13 दिसंबर 2017

मेरी मधुशाला........ पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

सम्मुख प्रेम का मधुमय प्याला,
अंजान विमुख दिग्भ्रमित आज पीने वाला,
मधुमय मधुमित हृदय प्रेम की हाला,
सुनसान पड़ी क्युँ जीवन की तेरी मधुशाला।

हाला तो वो आँखो से पी है जो,
खाक पिएंगे वो जो पीने जाते मधुशाला,
घट घट रमती हाला की मधु प्याला,
चतुर वही जो पी लेते हृदय प्रेम की हाला।

मेरी मधुशाला तो बस सपनों की,
प्याले अनगिनत जहाँ मिलते खुशियों की,
धड़कते खुशियों से जहाँ टूटे हृदय भी,
कुछ ऐसी हाला घूँट-घूृँट पी लेता मैं मतवाला।

भीड़ लगी भारी मेरी मधुशाला मे,
बिक रही प्रीत की हाला गम के बदले में,
प्रेम ही प्रेम रम रहा हर प्रेमी के हृदय में,
टूटे हैं प्याले पर जुड़े हैं मन मेरी मधुशाला में!

विषपान से बेहतर मदिरा की प्याला,
विष घोलते जीवन में ये सियासत वाला,
जीवन कलुषित इस विष ने कर डाला,
विष जीवन के मिट जाए जो पीले मेरी हाला।

भूल चुके जो जन राह जीने की,
मेरी मधुशाला मे पी ले प्याला जीवन की,
चढ़ जाता जब स्नेह प्रेम की हाला,
जीवन पूरी की पूरी लगती फिर मधुशाला।



-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
("कविता जीवन कलश" से)

यूं ही सदा ढलता सूर्य....कुसुम कोठारी

दूर गगन ने उषा का घूंघट पट खोला, 
स्वर्णिम बाल पतंग मुदित मन डोला, 
किरणों ने बांहे फैलाई ले अंगड़ाई, 
छन छन सोई पायल बोली मनभाई, 
अलसाई सी सुबह ने आंखें खोली, 
खग अब उठ जाओ प्यार से बोली, 
मधुर झीनी झीनी बहे बयार मधु रस सी, 
फूलों ने निज अधर खोले धीरे धीरे, 
भ्रमर गूंजार चहुँ और  गूंजे सरस, 
उठ चला रात भर का सोया कलरव, 
सभी चले करने पुरीत निज कारज, 
आराम के बाद ज्यों चल देता मुसाफिर 
अविचल अविराम,  पाने मंजिल फिर, 
यूं ही सदा आती है सुबहो फिर ढल जाने को, 
यूं ही सदा ढलता सूर्य नित नई गति पाने को। 
-कुसुम कोठारी

14...बेताल पच्चीसी....चोर क्यों रोया

चोर क्यों रोया और फिर क्यों हँसते-हँसते मर गया?” अयोध्या नगरी में वीरकेतु नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में रत्नदत्त नाम का एक सा...