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बुधवार, 13 दिसंबर 2017

यूं ही सदा ढलता सूर्य....कुसुम कोठारी

दूर गगन ने उषा का घूंघट पट खोला, 
स्वर्णिम बाल पतंग मुदित मन डोला, 
किरणों ने बांहे फैलाई ले अंगड़ाई, 
छन छन सोई पायल बोली मनभाई, 
अलसाई सी सुबह ने आंखें खोली, 
खग अब उठ जाओ प्यार से बोली, 
मधुर झीनी झीनी बहे बयार मधु रस सी, 
फूलों ने निज अधर खोले धीरे धीरे, 
भ्रमर गूंजार चहुँ और  गूंजे सरस, 
उठ चला रात भर का सोया कलरव, 
सभी चले करने पुरीत निज कारज, 
आराम के बाद ज्यों चल देता मुसाफिर 
अविचल अविराम,  पाने मंजिल फिर, 
यूं ही सदा आती है सुबहो फिर ढल जाने को, 
यूं ही सदा ढलता सूर्य नित नई गति पाने को। 
-कुसुम कोठारी

3 टिप्‍पणियां:

  1. निसर्ग के प्रति प्रेम आप की रचना में झलकता है
    सुंदर शब्दों से गुथी माला सी बहुत ही सुंदर रचना

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. नीतू जी आभार, आपका स्नेह और प्रतिक्रिया सदा आगे बढने को अग्रसर करती है।
      शुभ दिवस।

      हटाएं
  2. प्रथम तो यशोदा दी को सादर आभार मेरी रचना को विविधा मे प्रकाशित कर जो सम्मान दिया।
    मै अभिभूत हूई।
    शुभ दिवस।

    जवाब देंहटाएं

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