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रविवार, 24 जून 2018

बीजांकुर....कुसुम कोठारी

जलधर भार से नीचे झुके
चंचल हवा ने आंचल छेड़ा
अमृत बरसा तृषित धरा पर
माटी विभोर हो सरसी हुलसी
हृदय तल मे जो बीज थे रखे
उन्हें प्यार से सींचा स्नेह दिया
क्षिती दरक ने लगी अति नेह से
एक बीजांकुर प्रस्फुटित हुवा
सहमा सा रेख से बाहर झांके
खुश हो अंगड़ाई ली देखा उसने
चारों और उसके जैसे नन्हे नरम,
कोमल नव पल्लव चहक रहे
धरित्री की गोद पर खेल रहे
पवन झकोरों पर झूल रहे
  अंकुर  मे  स्फुरणा जगी
अंतः प्रेरणा लिये बढता गया।

सच ही है धरा को चीर अंकुर
जब पाता उत्थान है
तभी मिलता मानव को
जीवन का वरदान
सींचता वारिध उस को
कितने प्यार से
पोषती वसुंधरा , करती
उसका श्रृंगार है
एक अंकुर के खिलने से
खिलता संसार है।
-कुसुम कोठारी

गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

मेरा अस्तित्व...कुसुम कोठारी


जग में मेरा अस्तित्व
तेरी पहचान है मां 
भगवान से पहले तू है
भगवान के बाद भी तू ही है मां
मेरे सारे अच्छे संस्कारों का
उद्गम  है तू मां
पर मेरी हर बुराई की
मै खुद दाई हूं मां
तूने तो सद्गुणों ही दिये
ओ मेरी मां
इस स्वार्थी संसार ने
सब स्वार्थ सीखा दिये मां।
ओ मेरी मां।
-कुसुम कोठरी।

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

कदम रूकने से पहले...कुसुम कोठारी


कदम जब रुकने लगे तो
मन की बस आवाज सुन
गर तुझे बनाया विधाता ने
श्रेष्ठ कृति संसार मे तो
कुछ सृजन करने
होंगें तुझ को
विश्व उत्थान में, 
बन अभियंता करने होंगें
नव निर्माण
निज दायित्व को पहचान तूं
कैद है गर भोर उजली
हरो तम, बनो सूर्य
अपना तेज पहचानो
विघटन नही, 
जोडना है तेरा काम
हीरे को तलाशना हो तो
कोयले से परहेज
भला कैसे करोगे
आत्म ज्ञानी बनो
आत्म केन्द्रित नही
पर अस्तित्व को जानो
अनेकांत का विशाल
मार्ग पहचानो
जियो और जीने दो, 
मै ही सत्य हूं ये हठ है
हठ योग से मानवता का
विध्वंस निश्चित है
समता और संयम
दो सुंदर हथियार है
तेरे पास बस उपयोग कर
कदम रूकने से पहले
फिर चल पड़।
- कुसुम कोठारी

गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

उड़ान का हौसला......कुसुम कोठारी


रोने वाले सुन आंखों मे
आंसू ना लाया कर
बस चुपचाप रोया कर
नयन पानी देख अपने भी
कतरा कर निकल जाते हैं। 

जिंदगी की आंधियां बार बार 
बुझाती रहती है जलते चराग
पर जो दे चुके भरपूर रौशनी 
उनका एहसान कभी न भूल
उस के लिए दीप बन जल। 

जिस छत तले बसर की जिंदगी 
तूफानों ने उजाड़ा उसी गुलशन को  
गुल ना कली ना कोई महका गूंचा
बिखरी पंखुरियों का मातम ना कर
फिर एक उड़ान का हौसला रख ।

सुख के वो बीते पल औ लम्हात
नफासत से बचाना यादों मे
खुशी की सौगातें बाधं रखना गांठ
नाजुक सा दिल बस साफ रहे 
मासूमियत की हंसी होंठों पे सजी रहे।
 -कुसुम कोठारी

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

मन लताऐं बहकी सी....कुसुम कोठारी

कदम बढते गये बन
राह के साझेदार 
मंजिल का कोई
ठिकाना ना पड़ाव, 
उलझती सुलझती रही
मन लताऐं बहकी सी
तन्हाई मे लिपटी रही
सोचों के विराट वृक्षों से 
संगिनी सी, 
आशा निराशा मे
उगता ड़ूबता
भावों का सूरज
हताशा और उल्लास के
हिन्डोले मे झूलता मन 
कभी पूनम का चाॅद
कभी गहरी काली रात
कुछ सौगातें
कुछ हाथों से फिसलता आज
नर्गिस सा, बेनूरी पे रोता
खुशबू पे इतराता जीवन, 
कभी भरी महफिल
कभी बेनाम तन्हाई।
-कुसुम कोठारी

शनिवार, 3 मार्च 2018

सुरमई संध्या का आंचल...कुसुम कोठारी

शाम का ढलता सूरज
उदास किरणें थक कर
पसरती सूनी मुंडेर पर
थमती हलचल धीरे धीरे
नींद केआगोश मे सिमटती
वो सुनहरी चंचल रश्मियां
निस्तेज निस्तब्ध निराकार
सुरमई संध्या का आंचल
तन पर डाले मुह छुपाती
क्षितिज के उस पार अंतर्धान
समय का निर्बाध चलता चक्र
कभी हंसता कभी  उदास
ये प्रकृति का दृश्य है या फिर
स्वयं के मन का परिदृश्य
वो ही प्रतिध्वनित करता जो
निज की मनोदशा स्वरूप है
भुवन वही परिलक्षित करता
जो हम स्वयं मन के आगंन मे
सजाते है खुशी या अवसाद
शाम का ढलता सूरज क्या
सचमुच उदास....... ?
कुसुम कोठारी 

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

पायल छनकी....कुसुम कोठारी

उषा ने सुरमई शैया से
अपने सिंदूरी पांव उतारे
पायल छनकी
बिखरे सुनहरी किरणों के घुंघरू 
फैल गये अम्बर मे
उस क्षोर से क्षितिज तक
मचल उठे धरा से मिलने
दौड़ चले आतुर हो
खेलते पत्तियों से
कुछ पल द्रुम दलों पर ठहरे
श्वेत ओस को
इंद्रधनुषी बाना पहना चले
नदियों की कल कल मे
स्नान कर पानी मे रंग घोलते
लाजवन्ती को होले से
छूते प्यार से
अरविंद मे नव जीवन का
संदेश देते
कलियों फूलों मे
लुभावने रंग भरते
हल्की बरसती झरनों की
फुहारों पर इंद्रधनुष रचते 
छन्न से धरा का
आलिंगन करते,
जन जीवन को
नई हलचल देते
सारे विश्व पर अपनी
आभा छिटकाते
सुनहरी किरणों के घुंघरू।
-कुसुम कोठारी

रविवार, 11 फ़रवरी 2018

"परमेश्वरा " (हाइकु ) ...कुसुम कोठारी

तमो वितान
तम हर, दे ज्योति
पालनहार।

निशा थी काली
भोर की फैला लाली
हे ज्योतिर्मय।

शंकित मन
शंका हर , दे वर
जगत पिता।

रुठा है भाग्य
शरण तेरी आये
वरद दे हस्त।

आया शरण
भव नाव डोलत 
परमेश्वरा ।

मंजिल भूले
राह नही सूझत
दे दिशा ज्ञान।

-कुसुम कोठारी 

बुधवार, 24 जनवरी 2018

पलाश का मौसम....कुसुम कोठारी


पलाश का मौसम अब आने को है
जब खिलने लगे पलाश
संजो लेना
आंखों मे
सजा रखना हृदय तल मे
फिर सूरज कभी ना डूबने देना
चाहतों के पलाश
बस यूं ही खिले खिले रखना
हरे रहेगें अरमानों के जंगल
प्रेम के हरे रहने तक।
-कुसुम कोठारी 

शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

आज हुवा फिर से बवाल....कुसुम कोठारी

आज हुवा फिर से बवाल
घर मे मच गया घमासान
लगता आया है तूफान।

दादा जी का जन्मदिवस था
आये सारे ही शैतान
रिकी मिकी नवल चपल
पिंकी गुडिया पीहू रिधान
खाया छीना झपटा पटका
इसकी चोटी उस का कान। 
आज हुवा फिर से....... 

टीवी पर थी सब की नजरें
कहां छुपाया रिमोट कन्ट्रोल
रिकी मिकी क्रिकेट दिवाने
पोके मोन देखूं कहे चपल 
कोई कहे ये देखूं कोई कहे वो
झगडे मे टूटा रिमोट,मचा धमाल। 
आज हुवा फिर से.... 

चाचा गुर्राये कर आंखें लाल
ताऊ जी उठे छडी संभाल   
मम्मीयां खडी थी भींचें दांत
कांप गये सोच के वो घडी
कान खिंचाई बिल्कुल पक्की
अब किसकी कमर पर बेंत पडी। 
आज हुवा फिर से...

तभी दादाजी ने ऐनक चढाई
बोले बच्चों कैसी है ये लडाई
हम तो भइया जोरो से लडते
एक आध का दांत थे तोडते   
तुम सब तो हो बड़े ही भोले 
मिलेगें सब को पुरी छोले । 
आज हुवा फिर से.... 

शुरू हो गया फिर से धमाल
दादाजी ने किया कमाल
सबके चेहरों पर खुशियां छाई
सब ने  खूब आशीषें पाई 
खाने को ढेरों थे पकवान
आज तो भइया बच गये कान। 
आज हुवा फिर से बवाल ।
कुसुम कोठारी 

शनिवार, 13 जनवरी 2018

कुछ देर गर्माहट का एहसास.....कुसुम कोठारी


अच्छा लगता है ना, जाड़े में अलाव सेंकना
खुले आसमान के नीचे बैठ सर्दियों से लड़ना
हां कुछ देर गर्माहट का एहसास
तन मन को अच्छा ही लगता है
पर उस अलाव का क्या
जो धधकता रहता हर मौसम 
अंदर कहीं गहरे झुलसते रहते जज्बात
बेबसी,बेकसी और भूखे पेट की भट्टी का अलाव 
गर्मियों में सूरज सा जलाता अलाव
धधक धधक खदबदाता 
बरसात मे सीलन लिये धुंवा धुंवा अलाव
बाहर बरसता सावन, अंदर सुलगता 
पतझर मे आशाओं के झरते पत्तों का अलाव
उडा ले जाता कहीं उजडती अमराइयों मे
सर्दी मे सुकून भरा गहरे तक छलता अलाव।
-कुसुम कोठारी

शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

आप ईमान ढूंढते हो....कुसुम कोठारी

ये क्या कि पत्थरों के शहर में 
शीशे का आशियाना ढूंढते हो!

आदमियत का पता तक नही
गजब करते हो इंसान ढूंढते हो !


यहाँ पता नही किसी नियत का
ये क्या कि आप ईमान ढूंढते हो !

आईनों मे भी दगा भर गया यहां 
अब क्या सही पहचान ढूंढते हो !

घरौदें रेत के बिखरने ही तो थे
तूफानों पर क्यूं इल्जाम ढूंढते हो !

जहां बालपन भी बुड्ढा हो गया 
वहां मासुमियत की पनाह ढूढते हो!

भगवान अब महलों मे सज के रह गये 
क्यों गलियों मे उन्हें सरे आम ढूंढते हो। 
- कुसुम कोठारी

बुधवार, 13 दिसंबर 2017

यूं ही सदा ढलता सूर्य....कुसुम कोठारी

दूर गगन ने उषा का घूंघट पट खोला, 
स्वर्णिम बाल पतंग मुदित मन डोला, 
किरणों ने बांहे फैलाई ले अंगड़ाई, 
छन छन सोई पायल बोली मनभाई, 
अलसाई सी सुबह ने आंखें खोली, 
खग अब उठ जाओ प्यार से बोली, 
मधुर झीनी झीनी बहे बयार मधु रस सी, 
फूलों ने निज अधर खोले धीरे धीरे, 
भ्रमर गूंजार चहुँ और  गूंजे सरस, 
उठ चला रात भर का सोया कलरव, 
सभी चले करने पुरीत निज कारज, 
आराम के बाद ज्यों चल देता मुसाफिर 
अविचल अविराम,  पाने मंजिल फिर, 
यूं ही सदा आती है सुबहो फिर ढल जाने को, 
यूं ही सदा ढलता सूर्य नित नई गति पाने को। 
-कुसुम कोठारी

बुधवार, 6 दिसंबर 2017

दिल की पाती....कुसुम कोठारी


मैं शब्द शब्द चुनती हूं
अर्थ सजाती हूं
दिल की पाती ,
नेह स्याही लिख आती हूं
फूलों से थोड़ा रंग,
थोड़ी महक चुराती हूं
फिर खोल अंजुरी हवा मे 
बिखराती हूं 
चंदा की चांदनी
आंखो मे भरती हूं
और खोल आंखे
मधुर सपने बुनती हूं
सूरज की किरणो को
जन जन पहुँचाती हूं
हवा की सरगम पर
गीत गुनगुनाती हूं
बूझो कौन ?
नही पता!
मैं ही बतलाती हूं 
जब निराशा छाने लगे
मैं "आशा" कहलाती हूं
कुसुम कोठारी 

रविवार, 3 दिसंबर 2017

दर्पण दर्शन .....कुसुम कोठारी


ख्वाहिशों के शोणित 
बीजों का नाश 
संतोष रूपी भवानी के
हाथों सम्भव है 
वही तृप्त जीवन का सार है ।
"ख्वाहिशों का अंत "। 

ध्यान मे लीन हो
मन मे एकाग्रता हो 
मौन का सुस्वादन
पियूष बूंद सम 
अजर अविनाशी। 
शून्य सा, "मौन"। 

मन की गति है 
क्या सुख क्या दुख 
आत्मा मे लीन हो 
भव बंधनो की 
गति पर पूर्ण विराम ही
परम सुख,.. "दुख का अंत" । 

पुनः पुनः संसार 
मे बांधता 
अनंतानंत भ्रमण 
मे फसाता 
भौतिक संसाधन।
" यही है बंधन"। 

स्वयं के मन सा 
दर्पण 
भली बुरी सब 
दर्शाता 
हां खुद को छलता 
मानव।
" दर्पण दर्शन "।

- कुसुम कोठारी

बुधवार, 22 नवंबर 2017

खोटा सिक्का चलते देखा...कुसुम कोठारी

न करना गुमान कामयाबी का
चढता सूरज  ढलते देखा ।

बुझ गया हो दीप न डरना
प्रयासों से फिर जलते देखा ।

हीरा पड़ा रह जाता कई बार
और खोटा सिक्का चलते देखा ।

जिनके मां बाप हो संसार मे 
उनको  अनाथों सा पलते देखा ।

जिसका नही कोई दुनिया मे 
उनको  उचांई पर चढते देखा ।

कभी किसी की दाल न गलती
कभी पत्थर तक पिघलते देखा ।

समय पडे जब काम न किया तो
खाली हाथों को मलते देखा ।

कुछ सर पर छत लेकर ना खुश हैं 
कहीं जमीं पे सोने वालो को खुश देखा।
-कुसुम कोठारी।

14...बेताल पच्चीसी....चोर क्यों रोया

चोर क्यों रोया और फिर क्यों हँसते-हँसते मर गया?” अयोध्या नगरी में वीरकेतु नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में रत्नदत्त नाम का एक सा...