मैं हूँ
शाख- विहीन
एक अनाथ पत्ता!
बेबुनियाद --–अस्तित्वहीन।
कल तक,
मैं था
निश्चिंत, प्रमुदित
पेड़ की शाख से जुड़ा
जीवन–रस पाता हुआ;
कल तक,
समझ ना सका महत्व
जड़ से जुड़ाव का;
वंश के पोषण का,
विद्रोह की आँधी चली
और मैं,
दिशाहीन!
प्रतिकूल दशा में
क्षत-विक्षत पड़ा हूँ
भूमि पर
और कोई
देखता तक नहीं।
- डॉ. आरती स्मित
वाह!!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर...
विरह वेदना व्यथा लिए ओजपूर्ण प्रस्तुति
जवाब देंहटाएं.... अगर इस रचना को भावनापूर्ण विस्तार मिल जाता तो और भी सुंदर होता।
वाह बहुत खूब ..परिवार से विलग होने की पीडा ...और अफसोस दोनो को बहुत ही कुशलता से लिख डाला !
जवाब देंहटाएंआत्मा विहिन शरीर ही है टूटा पत्ता, मानव का प्रतिरूप। गूढ़ अर्थ लिये जीवन के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न।
जवाब देंहटाएंअप्रतिम रचना।
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जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंडाल से टूटने के बाद कोई नहीं पूछता ... हालांकि परिवार से विमुख होने के बाद फिर से जुड़ जाना चाहिए अगर मुमकिन हो सके ... लौटने में झिझक कैसी ...
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण और प्रभावी रचना
जवाब देंहटाएंबधाई
सादर