घर में बैठे रहें तो भीगें कब।
बारिशों से बचें तो भीगें कब॥
पत्थरों का मिज़ाज रख के हम।
यूँ ही ऐंठे रहें तो भीगें कब॥
आँसुओं का लिबास आँखों पर।
ये भी सूखी रहें तो भीगें कब॥
जिस्म कपडें का जान पत्तों की।
हम भी काग़ज़ बनें तो भीगें कब॥
उनके बालों से गिर रही बूँदें।
हम ये शबनम पियें तो भीगें कब॥
तेरे हाथों में हाथ साहिल पर।
अब न आगे बढ़ें तो भीगें कब॥
दूर तक बादलों का गीलापन।
और हम घर चलें तो भीगें कब॥
-रामबाबू रस्तोगी
जीवन के अंतर्द्वंद्व उभारती ख़ूबसूरत ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंकशमकश से निकलकर भीगने के उपाय और रास्ता हमें ख़ुद बनाने होंगे तभी ज़िंदगी की पूर्णता का रसानंद हमारे जीवन को विस्तार दे सकेगा।
बधाई एवं शुभकामनाएं।
आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 31 दिसम्बर 2017 को साझा की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंआन्तरिक कश्मकश को दर्शाती एक खूबसूरत गजल.
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