चाँद और मैं*
"दीप"
चाँद कल रात भटक गया था
राह और मंजिल की चाह में
उतर आया जमीन पर
जमीन को आसमान समझ कर
भूला तो मैं भी था
रास्ता भी और मंजिल, दोनों
चाँद और मैं, साथ जो हो लिए
चाँद मुझसे, और , मैं चाँद से
यूँ ही मुखातिब रहे रात भर
तारों सितारों जड़ी ओढ़नी पहने
जगमग जगमग चमक दमक कर
नजर भी सज धज कर
पहुंची चौबारे पर ,जहाँ
एक "दीप" सपनों का
बहुत सा तेल और संग इक बाती
तिल तिल जल रही थी और
संग जल रहे थे
दो इंसान, उनकी पूर्ण पहचान
रूह खामोश और यूँ ही उसके
खामोश होते होते
जिस्म जल गए और
रात, चुपके से रो पड़ी दो आंसू
ओस की नम महीन महीन बूंदें
आस बन कर, उश्वास बन कर
स्याह केशों से ढल कर
पलको के नरम रूओं में ठहरी
और ढल कर
मीठे होठों का "रंग"नमकीन कर गईं
और यह रंग सुर्ख हो कर
हौले से, नन्हे नन्हे, पग भर कर
एक दूजे में भर गया, यूँ
पूरा इक समुद्र नमकीन कर गया
नन्ही दो मछलियां बार बार
मुख उठाती
आसमान, चूमती और फिर
खारे पानी में डूब कर
वेहोश हो जाती और यूँ ही
कोल कलोल की मुद्राओं के ऋण से
उऋण होकर
खो जाती, सो जाती
विलीन हो जाती
असीम अनन्त आकाश में
अस्तित्वहीन हो कर,
ख़ुशी से कर समर्पण उस शून्य में
शून्य, जो अब एक है,
दोनों का एक, अविभाजित,पराजित सा
एक, बस एक, होता सारा आकाश,
नीरवता भंग करता शोर
दूर प्राचीर पर, भोर का शोर अब
घुलने लगा ,आकाश भी खुलने लगा
अँधेरा स्याह भी धुलने लगा
चाँद यूँ ही मद्दम सा चमकता हुआ
रौशनी की चाह में,भटकता हुआ
खो गया है, शायद
सो गया है, थक कर
मेरी तरह।
"दीप"
कुलदीप शर्मा
बहुत खूब ... चाँद जैसे भटकते हैं कायनात में तनहा ... सुन्दर शब्द संयोजन ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी
हटाएंबहुत खूबसूरती से शब्दों को संजोये हुए हर पंक्तियाँ..
जवाब देंहटाएंजी धन्यवाद
हटाएंआदरणीय कुलदीप जी -- निशब्द कर देने वाले अनुराग के अनुपम चित्र को संजोती ये सुंदर रचना अपने आप में बहुत विशिष्ट हो गयी है | अप्रितम भाव और सरल- सहज शब्दों से सजी रचना का एक एक शब्द मन को छू रहा है | मुझे बहुत ही पसंद आई ये अनुपम रचना | हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं आपको |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी आपका।
जवाब देंहटाएंजी, आपका बहुत धन्यवाद
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