ज़ुबां ख़ामोश है डर बोलते हैं
अब इस बस्ती में ख़ंजर बोलते हैं
मेरी परवाज़ की सारी कहानी
मेरे टूटे हुए पर बोलते हैं
सराये है जिसे नादां मुसाफि़र
कभी दुनिया कभी घर बोलते हैं
तेरे हमराह मंज़िल तक चलेंगे
मेरी राहों के पत्थर बोलते हैं
नया इक हादिसा होने को है फिर
कुछ ऐसा ही ये मंज़र बोलते हैं
मेरे ये दोस्त मुझसे झूठ भी अब
मेरे ही सर को छूकर बोलते हैं
- राजेश रेड्डी
मेरे ये दोस्त मुझसे झूठ भी अब, मेरे ही सर को छूकर बोलते हैं....:-(
जवाब देंहटाएंसुंदर!!!
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना...बधाई एवं नमन।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (29-11-2017) को "कहलाना प्रणवीर" (चर्चा अंक-2802) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ख़ूब ... सर की क़सम खा के ही झूठ बोला जाता है ... लाजवाब शेर हैं ग़ज़ल के ...
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