1907-1987
प्रिय सुध भूले री, मैं पथ भूली
मेरे ही मृदु उर में हंस बस
सांसों में भर मादक मधु रस
लघु कलिका के चल परिमल से
ये नभ छाये री मैं वन फूली
तज उनका गिरि सा गुरु अंतर
मैं सिक्ताकण सी आई झर
आज सजन उनसे परिचय क्या
ये नभ चुम्बित मैं पद धूली
उनकी वीणा की मृदु कम्पन
डाल गई री मुझमें जीवन
खोज ना पाई अपना पथ मैं
प्रतिध्वनि सी सूने में गूंजी
प्रिय सुध भूले री मैं पथ भूली ~
~ महादेवी वर्मा
बहुत सुन्दर चयन।
जवाब देंहटाएंडाल गई री मुझमें जीवन
जवाब देंहटाएंखोज ना पाई अपना पथ मैं.... Adbhut 👍👍
बहुत मोहक रचना। बेहद उत्तम।
जवाब देंहटाएंकहाँ गए ऐसे लोग !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (20-09-2017) को बहस माता-पिता गुरु से, नहीं करता कभी रविकर : चर्चामंच 2733 पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'