मिट न सकी
अंतहीन भूख
अभ्यंतर से
मेरे अभ्यंतर से
बार बार पुनः
जन्म हुआ
चाहिये मुझको
भरपाई
तृप्त भरपाई
संकीर्ण से अनंत
तक की प्यास
पुनः बुझानी है
कालविजयी दशाओं में
अक्सर भूखा था
उस रोज़
और प्यासा था
जब फूटती थी
एक विशाल नदी
प्रवाही मन से
निशब्द है ज़ुबान
आज
भूख व्यक्त नही करती
उगती है
विलीन हो जाती है
पर हर पहलू
एक भूख है
अंतहीन भूख
-अंशू सिंह
जन्म 30 अक्टूबर 1987
वाराणसी काशी हिन्दू वि वि
से स्नातक एवं स्नातकोत्तर
सुन्दर।
जवाब देंहटाएंगहन, बहुत बहुत गहन। चन्द शब्दों में अंतर्मन को झकझोरना कतई आसान नही होता। बहुत सुंदरतम
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी की कश्मकश से गुज़रती संवेदना को झिंझोड़ती ऐसी कविता जो नयापन लिए है।
जवाब देंहटाएंबधाई एवं शुभकामनाऐं।
आदरणीय यशोदा बहन जी हार्दिक धन्यवाद पाठकों को उत्कृष्ट रचना वाचन के लिए प्रस्तुत करने हेतु।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 16 सितम्बर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-09-2017) को
जवाब देंहटाएं"चलना कभी न वक्र" (चर्चा अंक 2730)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'