रग-रग में कंटक-सी चुभती श्वास लिए भटकूँ
अपने काँधे पर मैं अपनी लाश लिए भटकूँ।
लोगों की हमदर्दी का मॅुहताज़ हो गया हूँ
सूनी-सूनी आँखों में आकाश लिए भटकूँ।
जश्न मनाओ तुम अपना मैं दर्द सहूँ अपना
सारे रिश्ते-नातों से अवकाश लिए भटकूँ।
मैंने मांगा इक छोटा–सा मीठा–सा झरना
ऐसा खारा मिला समन्दर प्यास लिए भटकूँ।
-डॉ. डी. एम. मिश्र
वाह्ह्ह.....गज़ब की अभिव्यक्ति... लाज़वाब
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जवाब देंहटाएंकमाल करता हर शेर। वाह !
बहुत लाजवाब शेर ...
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