आँखों में रहा दिल में उतरकर नहीं देखा,
कश्ती के मुसाफ़िर ने समन्दर नहीं देखा
बेवक़्त अगर जाऊँगा, सब चौंक पड़ेंगे
इक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा
जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है
आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं,
तुमने मेरा काँटों-भरा बिस्तर नहीं देखा
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उसने मुझे छूकर नहीं देखा
- बशीर बद्र
वाह्ह्ह....बशीर बद्र की शानदार बेमिसाल गज़ल क्या कहने...।
जवाब देंहटाएंशायर डॉ. बशीर बद्र साहब की कालजयी ग़ज़ल साझा करने के लिए आपका हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंग्वालियर में कई बार इस महान शायर को रूबरू सुना और सृजन की गहराइयों को समझने का मौका मिला।
उम्दा ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंआभार पढ़वाने के लिए
बशीर बद्र जी की ग़ज़ल हर नए लिखने वाले के लिए वो हस्ताक्षर है जो उसे हमेशा अपनी लेखनी सुधारने की राह दिखाती है. उनकी इस ग़ज़ल को कई बार पढ़ चुकी हूँ लेकिन हर बार ये मरे सामने नए मायने खोल कर रख देती है. इसे साझा करने के लिए बहुत बहुत आभार
जवाब देंहटाएंबहुत खूब।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंसाझा करने के लिए.....आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गजल । साझा करने हेतु आभार ।
जवाब देंहटाएंउस्तादों को पढ़ के जो आनद मिलता है वो कहीं नहीं ... आदाब बशीर साहब के लिए ...
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