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बुधवार, 11 अप्रैल 2018

डर.....डॉ. आराधना श्रीवास्तव


मुझे सजा सँवार कर
गम्भीरता की चादर डाल कर
फिर से 
बैठा दिया गया
भावी वर के घर वालों के समक्ष
मन में हज़ारों डर और आशंकायें लिए।
उनकी परखती
अन्दर तक बेधती नज़रें
मुझ में ढूँढने लगी 
एक सुन्दर, सुसंस्कृत, शिक्षित आदर्श बहू
घर और परिवार को सम्भालने के गुण 
दहेज की लिस्ट की लम्बाई
और वज़न।
इन सबसे बढ़ कर
मेरे प्रमाणपत्रों में कमाऊ होने के सर्टिफिकेट
और मै स्वयं में सिकुड़ती सिमटती
तूफ़ान के बाद की तबाही से डरती
न चाहते हुए भी ईश्वर से मनाने लगी
कि जाने वाले, पिछलों की तरह
निराशा और उदासी का साम्राज्य 
न छोड़ जायें।

-डॉ. आराधना श्रीवास्तव

7 टिप्‍पणियां:

  1. खरा सत्य है आपकी कविता की पंक्तियाँ,इस सामाजिक व्यवस्था में हर लड़की इस दौर से गुजरती है,और कमोबेस सबके मन मे यह डर होता है,सूंदर रचना...

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  2. इस परिस्थिति में हरेक लड़की के अंतर्मन में यही भाव होते हैं। इतनी परिपक्वता के साथ उकेरा आपने मानस में छिपे, सहमें भावों को... ढेरों साधुवाद👌👌👌👏👏👏💐💐💐

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  3. बहुत गहरी सत्य की परख करती रचना भावी विवाहिता का अंतर द्वंद्व बहुत सुंदरता से उकेरा है ।
    अप्रतिम।

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  4. 😥 लड़की के मन की गहन पीड़ा दर्शाता काव्य आती उत्तम

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत खूबसूरत शब्द चयन....अप्रतिम

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह बहुत खूबसूरत बेहतरीन रचना

    जवाब देंहटाएं
  7. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरूवार (12-04-2017) को "क्या है प्यार" (चर्चा अंक-2938) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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