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शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

क्रमशः..........डॉ. प्रभा मुजुमदार

टूटे दर्पण से 
परावर्तित होकर 
अपनी ही अलग अलग आकृतियाँ 
धुँधलाती जा रही हैं । 
एक आवाज़ जो 
निर्जन खण्डहर की दीवारों से 
प्रतिध्वनित होकर 
बार बार गूँजती है 
खामोश होने से पहले।
समय के लम्बे अन्तराल में 
बहाव की दिशा बदलती हुई 
एक नदी 
सभ्यता के कितने ही 
तटों को 
पीछे छोड़ चुकी है 
वे जिंदा किले और 
गूँजते हुए महल 
खामोश खंडहरों में 
बदल चुके हैं... 
जिनके पीछे बहता हुआ 
छोटा सा एक झरना 
रेगिस्तान ने निगल लिया है।
-डॉ. प्रभा मुजुमदार


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