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सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

मजमा.....राजेश "ललित" शर्मा


मजमा सजा है
मदारी ख़फ़ा है
बंदरिया के खेल का
अपना ही मजा है
लोग खड़े हैं
जादु बड़े हैं
हवा में से आयेगा रुपैया
साँप नाचेगा बीन पर थैया थैया

खेल सजेगा
नींबू कटेगा
ख़ून बहेगा
एक लड़का गिरेगा
फिर ख़ून बहेगा 
हाथ खोल दो
नहीं तो लड़का मरेगा
मदारी कहेगा
मंच सजेगा
बच्चा लोग ताली बजायेंगें
बड़े लोग बटुआ संभालेंगे
मदारी नोट के नम्बर बतायेगा
सब ख़ुश हो जायेंगे

पुलिस वाला आयेगा
डंडा बजायेगा
मदारी पचास का नोट थमायेगा
नया खेल दिखायेगा
छोटी सी लड़की आयेगी
दो बाँसों में रस्सी कसेगी
पाँव में रस्सी फंसेगी
रस्सी पर टंगेगी।
भीड़ होंठों पर हाथ रखेगी
अब गिरी के तब गिरी
कुछ नहीं होता
लड़की नीचे 
सब बजाओ ताली
बच्चों की जेब ख़ाली
बड़ों ने फिर पर्स निकाला
नया नोट जुगाड़ा
खुले नहीं का बहाना लगाया
सिक्का निकाला
हवा में उछाला
मदारी ने लपका
खेल ख़त्म 
पाँच साल पूरे हुये

सारे जुटना अगली गली
नया मदारी आयेगा
पुराने का सगा नहीं होगा
हवा में पैसा बनायेगा
लपक लेना सब
हवा का पैसा हवा में रहेगा
यूँ ही चलेगा 
वह नया खेल दिखायेगा
पापी पेट का सवाल है भाई
-राजेश "ललित" शर्मा

3 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ संध्या
    खेल ख़त्म
    पाँच साल पूरे हुये
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह !
    कमाल का सृजन।
    रोटी के लिए ज़िन्दगी दाव पर लगा देना ,कमाल दिखाकर रोटी कामना, क़ानून और जीवन संघर्ष के बीच एक अंतहीन बहस। बड़ा कमाल दिखाए तो लोग देखने के लिए काम ही ठहरते हैं और जब अनापेक्षित आयु का कलाकार जब अपनी कला का प्रदर्शन करता है तो रोमांच का आनंद लोगों की जेबों से पैसा निकलवा देता है। इस मानसिकता ने ऐसे बच्चों को उनके बचपन के स्वाभाविक विकास से महरूम कर दिया है।
    बहुत सुन्दर रचना। बधाई एवं शुभकामनाऐं।

    जवाब देंहटाएं

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