मसि बहती
हिय पन्नॊं पर
कहीँ कम
कहीँ ज्यादा !
पन्ना गीला
गीला सा है
कहीँ कम
कहीँ ज्यादा !
मन भी तन्हा
दुखा उम्र भर
कहीँ कम
कहीँ ज्यादा !
सन्नाटा सा
पसरा है
कहीँ कम
कहीँ ज्यादा !
बेचैन लकीरें
कहती है
कहीँ कम
कहीँ ज्यादा !
जाने कितने
मौसम आये
कहीँ कम
कहीँ ज्यादा !
अब के भी
सावन सरसाये
कहीँ कम
कहीँ ज्यादा
जाने कहाँ
लफ्ज बिखरे हैं
कभी कम
कभी ज्यादा!
मसि मेरी
सूखी चट्के है
कहीँ कम
कहीँ ज्यादा !!
-डॉ. इन्दिरा गुप्ता
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबधाई
सादर
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंमुझे इन्दिरा जी की हर रचना पसंद आती है
जब पहली बार उनकी रचना विविधा पर पढ़ी
तब स्वप्नपूर्ती सा अनुभव हुआ अब तो ख्वाब परवान चढ रहें है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (20-12-2017) को "शीत की बयार है" (चर्चा अंक-2823) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'