सुबह का चलकर शाम में ढलना।
जीवन का हर दिन जिस्म बदलना।।
हसरतों की रेत पे दरिया उम्मीद की,
खुशी की चाह है मिराज़ सा छलना।
चुभते हो काँटें ही काँटों का क्या है
जारी है गुल पर तितली का मचलना
वक्त के हाथों से ज़िदगी फिसलती है,
नामुमकिन इकपल भी उम्र का टलना।
अंधेरे नहीं होते हमसफर ज़िदगी में,
सफर के लिये तय सूरज का निकलना।
#श्वेता🍁
शुभ संध्या
जवाब देंहटाएंबेहतरीन...
खुश हो गए हम
सादर
😊😊
हटाएंआभार दी...खूब सारा।
सुन्दर!
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबधाई और शुभकामनायें
वाहःह क्या बात
जवाब देंहटाएंबेहतरीन....
उम्दा गनुक....
जवाब देंहटाएंआभार पढ़वाने के लिए....
सादर.....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14-11-2017) को
जवाब देंहटाएं"कभी अच्छी बकवास भी कीजिए" (चर्चा अंक 2788)
पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएं