पल दो पल में ही ज़िदगी बदल जाती है।
खुशी हथेली पे रखी बर्फ़ सी पिघल जाती है।।
उम्र वक़्त की किताब थामे प्रश्न पूछती है,
ज़ख्म चुनते ये उम्र कैसे निकल जाती है।
दबी कोई चिंगारी होगी राख़ हुई याद में,
तन्हाई के शरारे में बेचैनियाँ मचल जाती है।
सुबह जिन्हें साथ लिये उगती है पहलू में,
उनकी राह तकते हर शाम ढल जाती है।
ख़्वाहिश लबों पर खिलती है हँसी बनकर,
आँसू बन उम्मीद पलकों से फिसल जाती है।
श्वेता🍁
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसुबह जिन्हें साथ लिये उगती है पहलू में,
जवाब देंहटाएंउनकी राह तकते हर शाम ढल जाती है।
Wahhhhh। बहुत सुंदर ग़ज़ल श्वेता जी। हर शेर शानदार।
दार्शनिक अंदाज की ग़ज़ल। बहुत खूब। सुंदर। बधाई एवं शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-10-2017) को "उलझे हुए सवालों में" (चर्चा अंक 2757) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर...
सुन्दर !
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