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मंगलवार, 26 जून 2018

सुरमई शाम का मंज़र....कुमार अनिल

सुरमई शाम का मंज़र होते, तो अच्छा होता
आप दिल के भी समंदर होते, तो अच्छा होता

बिन मिले तुमसे मैं लौट आया, कोई बात नहीं
फिर भी कल शाम को तुम घर होते, तो अच्छा होता

माना फ़नकार बहुत अच्छे हो तुम दोस्त मगर
काश इन्सान भी बेहतर होते , तो अच्छा होता

हम से बदहालों, नकाराओं, बेघरों के लिए
काश फुटपाथ ये बिस्तर होते, तो अच्छा होता

मैं जिसमे रहता भरा ठंडे पानियों की तरह
आप माटी की वो गागर होते, तो अच्छा होता

यूँ तो जीवन में कमी कोई नहीं है, फिर भी
माँ के दो हाथ जो सर पर होते, तो अच्छा होता

तवील रास्ते ये कुछ तो सफ़र के कट जाते
तुम अगर मील का पत्थर होते, तो अच्छा होता

तेरी दुनिया में हैं क्यूँ अच्छे-बुरे, छोटे-बड़े
सारे इन्सान बराबर होते तो, अच्छा होता

इनमें विषफल ही अगर उगने थे हर सिम्त 'अनिल'
इससे तो खेत ये बंजर होते , तो अच्छा होता
-कुमार अनिल 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही बढ़िया हकीकत है ये आज की

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (27-06-2018) को "मन को करो विरक्त" ( चर्चा अंक 3014) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. मुझे सबसे ज़्यादा आपकी कविता में जो बात पसंद आई, वो ये कि हर सेर एक अलग कहानी कहता है, लेकिन फिर भी पूरी कविता एक साथ बहती जाती है, जैसे कोई पुराना दोस्त धीरे-धीरे अपने दिल की परतें खोल रहा हो। आपकी ये कविता बस पढ़ी नहीं जाती, महसूस होती है। ऐसे ही लिखते रहना, सच में आपका अंदाज़ बहुत खास है।

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