आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!
ढूंढ़ता वो सदियों सेे ललित रमणी का पता,
अभ्र पर शहर की वो मंडराता विहंग सा,
वारिद अम्बर पर ज्युँ लहराता तरिणी सा,
रुचिर रमनी छुपकर विहँसती ज्युँ अम्बुद में चपला।
आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!
जलधि सा तरल लोचन नभ को निहारता,
छलक पड़ते सलिल तब निशाकर भी रोता,
बीत जाती शर्वरी झेलती ये तन क्लेश यातना,
खेलती हृदय से विहँसती ज्युँ वारिद में छुपी वनिता।
आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!
अभ्र = आकाश,
वारिद, अम्बुद=मेघ
विहंग=पक्षी
रचयिता: पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
शुभ संध्या भाई
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविता चुनी आज
सादर
नमस्ते दीदी। आभार
हटाएंBahut sunder rachna
जवाब देंहटाएंsunder shabd chayan aur bhav
बहुत बहुत शुक्रिया
हटाएंबढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना आपकी P.kji,
जवाब देंहटाएंसबसे अनूठी होती है आपकी कृति आपकी भावात्मक अभिव्यक्ति। मेरी बधाई स्वीकार करें।
बहुत बहुत शुक्रिया
हटाएंआसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!-
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर प्रेमाभिव्यक्ति प्रकृति के प्रतीकों के माध्यम से | बहुत सुंदर मनमोहक रचना आदरणीय पुरुषोत्तम जी | सादर --सस्नेह