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सोमवार, 11 दिसंबर 2017

अभ्र पर शहर की....पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

ढूंढ़ता वो सदियों सेे ललित रमणी का पता,
अभ्र पर शहर की वो मंडराता विहंग सा,
वारिद अम्बर पर ज्युँ लहराता तरिणी सा,
रुचिर रमनी छुपकर विहँसती ज्युँ अम्बुद में चपला।

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

जलधि सा तरल लोचन नभ को निहारता,
छलक पड़ते सलिल तब निशाकर भी रोता,
बीत जाती शर्वरी झेलती ये तन क्लेश यातना,
खेलती हृदय से विहँसती ज्युँ वारिद में छुपी वनिता।

आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!

अभ्र = आकाश,
वारिद, अम्बुद=मेघ
विहंग=पक्षी

रचयिता: पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

8 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ संध्या भाई
    बेहतरीन कविता चुनी आज
    सादर

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  2. बहुत खूबसूरत रचना आपकी P.kji,
    सबसे अनूठी होती है आपकी कृति आपकी भावात्मक अभिव्यक्ति। मेरी बधाई स्वीकार करें।

    जवाब देंहटाएं
  3. आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता!-
    बहुत ही सुंदर प्रेमाभिव्यक्ति प्रकृति के प्रतीकों के माध्यम से | बहुत सुंदर मनमोहक रचना आदरणीय पुरुषोत्तम जी | सादर --सस्नेह

    जवाब देंहटाएं

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