सप्त सुरों की माला है ये कुदरत का है गीत,
कण कण में पाया है मैंने जीवन का संगीत,
मधुर मिलान के प्रेम गीत या विरह मन का भार ,
सप्त सुरों में बंधा हुआ है ये सारा संसार,
झरनों की खल खल हो या फिर बिजली का हो नाद ,
ढूँढोगे तो पाओगे सप्त सुरों का स्वाद ,
सांसों की धड़कन कहती है गाले मेरे गीत,
चाहे मन में अश्रु भरे हों या हो मन में प्रीत,
भवरों की गुन गुन हो या फिर कोयलिया की तान,
कान्हा की मुरली हो या फिर रामचंद्र का बाण,
राधा के पायल की रुनझुन कहती है हर बार,
कान्हा तेरे मुरली की धुन छेड़े है दिल के तार,
मधुशाला में बजते प्याले या फिर घोड़े की नाल,
चक्कों की आवाज़ सुनो या समय चक्र की चाल,
वीणा की धुन मधुर सुहावन या तबले की थाप,
जहाँ भी ढूँढ़ो वहीँ मिलेगा भाँप सको तो भाँप ,
पतझड़ में पत्ते कहते है भूल ना जाना मीत,
नई कोपलें लायेंगी नव जीवन का संगीत,
पशु,पक्षी,या कीट,पतंगें कौन अछूता जो ना माने ,
सुन सकता है हर कोई जो भी इस अंतर मन को जाने,
-नीतू ठाकुर
आपकी रचना बहुत ही सराहनीय है ,शुभकामनायें ,आभार
जवाब देंहटाएं"एकलव्य"
बेहतरीन....
जवाब देंहटाएंसादर...
आभार
हटाएंवाह ! बहुत ही खूबसूरत शब्द संयोजन से सजी रचना !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंप्रकृति का सुरमई गीत बड़े निराले अंदाज में पेश किया है। सुंदर भावों के पंख लगाकर ऊंची उड़ान भरती एक रचना। बधाई एवं शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंबहुत सुंदर रचना नीतू जी।भावों और शब्दों का बहुत सुंदर संयोजन।
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