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रविवार, 1 अक्तूबर 2017

आशना...अमित जैन ‘मौलिक’



जबसे उनसे हुई मेरी अनबन 
तबसे सूना है शाख-ए-नशेमन।

कैसे कह दूँ के आ मेरे ज़ानिब
बेमज़ा हो गया हुँ मैं जानम।

जो महक ना बिखेरे फ़िज़ा में
क्यों सजाये कोई ऐसा गुलशन।

यूँ है आराइश-ए-आशियाना
जैसे उलझा हो कांटों से दामन।

फ़ासिला कुछ ज़हद ने बढ़ाया 
बेख़ता था सदा से ये मुल्ज़िम।

इश्क़ है ये मुहिम न बनाओ
कुछ भरम भी रहे मेरा कायम।

हसरते आशना कुछ नही है
आँख जबसे हुई मेरी पुर नम।

क्या तकाज़ा करूँ क्या तनाज़ा
इश्क़ वाले न करते तसादुम।

वो ही मुंसिब उन्हीं की अदलिया
या ख़ुदा मैं हूँ आसिम वो बरहम।

6 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! अमितजी के शेर के जलवे का क्या कहना!!! निःशब्द!!!

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  2. वाह्ह्ह...क्या कहने लाज़वाब गज़ल है...हर शेर मुकम्मल और अलहदा।
    अमित जी बहुत उम्दा👌👌👌

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह !
    बहुत ख़ूब !
    नाज़ुक जज़्बातों से सजायी और तराशी हुई ख़ूबसूरत ग़ज़ल।
    जीवन के विविध रंग भर दिए क़रीने से।
    बधाई एवं शुभकामनाऐं।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत खूब, अमित जी। बहुत ही बढ़िया रचना।

    जवाब देंहटाएं
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    जवाब देंहटाएं

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