सुना -अनसुना
कर
हर पल गुजरता
क्या किस्सा
कहे उनकी
बेरुखी का !
उमर का
सफीना
साहिल पे डूबा
जमाना भी था
तब दिल्लगी का !
साँसो की
बेचैनियाँ
क्या कहे हम
लगता था
चक्कर जो
उनकी गली का !
मेरी
इस खता को
ना हँस कर
उड़ाओ
किस्सा है
ये मेरी
बेबसी का !
चाहा
बता कर
दिल हल्का
कर ले
मखौल का
सबब
बना ये
गमी का !
डॉ. इन्दिरा
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 21 नवम्बर 2017 को साझा की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआभार 🙏
हटाएंबहुत सुंदर इंदिरा जी
जवाब देंहटाएंइंदिरा जी आप की कविता पढ़ कर मन खुश हो गया
जवाब देंहटाएंबहुत सूंदर रचना....
आपकी प्रसन्नता का कारण बनी आभार
हटाएंवाह्ह्ह्....वाह्ह्ह...लाज़वाब कविता प्रिय इन्दिरा जी।
जवाब देंहटाएं👍👌👌
शुक्रिया प्रिय श्वेता
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-11-2017) को "भावनाओं के बाजार की संभावनाएँ" (चर्चा अंक 2794) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
विविधा पर स्थान देने ले लिये आभार 🙏
हटाएंWahhhh। बहुत लाज़वाब बेहद शानदार कविता। डॉ.इंदिरा जी की कलम की अलग लहक अलग महक है।
जवाब देंहटाएंअति आभार मौलिक जी अपकी जर्रा नवाजी लहक और महक जैसे शब्दो से की गई सराहना
हटाएंलेखन को प्रवाह दे गई !
वाह! आपकी कलमकारी के अद्भुत रंग अत्यंत प्रभावशाली और दिल को छू लेने वाले हैं। दिल्लगी की शोखियां अब संजीदा मजाक सी लगती है। भौतिकता धीरे धीरे हमारे स्वाभाविक गुणों को जकड़ रही है। रचना की तारीफ के लिए एक शब्द कम है। बधाई एवं शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंअति आभार 🙏
हटाएंभौतिकवाद के इस समाज मै
इंसा भौतिक खुद हो आया
भाव चाव की बात ना कोई
कंकरीट जँगल उग आया !
thanx 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ... दिल की कशमकश को बाखूबी लिखा है ...
जवाब देंहटाएं🙏thanx
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
बधाई