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रविवार, 22 अक्टूबर 2017

हाँ, मैं तुम्हें महसूस कर सकती हूँ....श्वेता सिन्हा

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पल पल तुझमें खो जीकर
बूँद बूँद तुम्हें हृदय से पीकर
एहसास तुम्हारा अंजुरी में भर
अनकही तुम्हारी पीड़ा को छूकर
इन अदृश्य हवाओं में घुले
तुम्हारें श्वासों के मध्यम स्पंदन को
महसूस कर सकती हूँ।

निर्विकार , निर्निमेष कृत्रिम
आवरण में लिपटकर हंसते
कागज के पुष्प सदृश चमकीले
हिमशिला का कवच पहन
अन्तर्मन के ताप से पिघल
भीतर ही भीतर दरकते
पनीले आसमान सदृश बोझिल
तुम्हारी गीली मुस्कान को
महसूस कर सकती हूँ।

कर्म की तन्मयता में रत दिन रात
इच्छाओं के भँवर में उलझे मन
यंत्रचालित तन पे ओढ़कर कर
एक परत गाढ़ी तृप्ति का लबादा,
अपनों की सुख के साज पर
रुंधे गीतों के टूटते तार बाँधकर,
कर्णप्रिय रागों को सुनाकर
मिथ्या में झूमते उदासी को तुम्हारी
महसूस कर सकती हूँ।
हाँ, मैं तुम्हें महसूस कर सकती हूँ
       -श्वेता सिन्हा

6 टिप्‍पणियां:

  1. सांसों के स्पंदन, मुस्कान और उदासी जो कि दूसरे की है उसे कोई संवेदनशील हृदय ही महसूस कर सकता है। बहुत सुंदर सृजन। जीवन के आरोह अवरोह बखूबी समेट दिये। बधाई एवं शुभकामनाएं।

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  2. हाँ, मैं तुम्हें महसूस कर सकती हूँ..

    बहुत सुंदर। अप्रतिम। भावनाओं के उद्वेग को शब्दों में पिरोना आपकी विशेषता है। अवर्णनीय

    जवाब देंहटाएं
  3. बस यही तो सबसे कठिन है ! महसूस करना ! संवेदनाहीन होते जा रहे हैं सब और आप महसूस कर रही हैं ! बहुत खूब श्वेताजी । मन आपकी लेखनी का कायल तो पहले से ही है.....और क्या कहूँ....

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