चित्र साभार-गूगल
सोचती हूँ किसको कहूँ
पत्थर यहाँ भगवान,
तुझको पत्थर कहते हुये
है बुत बना इंसान।
हृदय संवेदनहीन है
न धरम कोई न दीन है,
बिक रहा बाज़ार में
है फर्ज़ और ईमान,
सोचती हूँ किसको कहूँ
पत्थर यहाँ भगवान।
न ढक पाए मनु लाज है
जन दाने को मोहताज है,
स्वर्गभूमि मेरी यही यहाँ
करो न नर्क का आह्वान,
सोचती हूँ.किसको कहूँ
पत्थर यहाँ भगवान।
क्या तमाशा देखते हो
आँखें अपनी सेंकते हो,
कठपुतलियों में प्राण भर
न खेलो हे, सर्वशक्तिमान,
सोचती हूँ किसको कहूँ
पत्थर यहाँ भगवान।
माटी की शुचि काया रचा
देवत्व भी भर दो प्रभु,
हिय स्वच्छ कर दो प्रभु
अब ऐसा करो निर्माण,
न सोचूँ फिर किसको कहूँ
पत्थर यहाँ भगवान।
#श्वेता🍁
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
माटी की शुचि काया रचा
जवाब देंहटाएंदेवत्व भी भर दो प्रभु,
हिय स्वच्छ कर दो प्रभु
अब ऐसा करो निर्माण,
न सोचूँ फिर किसको कहूँ
पत्थर यहाँ भगवान।
जगत नियंता से तगादा करती, शिकायती लहज़े की, सर्व मंगल हिताय एक बहुत ही प्रेरक रचना। बहुत सुंदर श्वेता जी।
वाह !
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब !
कवियत्री की खिन्नता परिवेश में व्याप्त विकृति और मूल्यों का सतत ह्रास है।
नवनिर्माण ,नवसृजन का आह्वान आशावादी होकर जीवन में विश्वास जताने का विराट भाव है।
आहत मन को मरहम जैसी सुन्दर रचना।
लिखते रहिये।
बधाई एवं शुभकामनाऐं।
बहुत ही खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंbeautiful lines.....
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