पलकों को आँचल से पोछा,
चेहरे पर मुस्कान सजाई,
जब देखी आंगन में मैंने,
अपने बाबुल की परछाई,
बार बार घड़ी को देखे,
जैसे समय को नाप रहे थे,
पल में अन्दर पल में बहार,
रस्ते को ही झाँक रहे थे,
देख मुझे सुध-बुध बिसराये,
घर के अन्दर ऐसे भागे,
जैसे उन बूढ़े पैरों में,
नये नवेले चक्के लागे,
भाग के आई मैया मेरी,
हाथों में एक थाल सजाये,
आँखों में ख़ुशी के आँसू,
दिल में कई अरमान बसाये,
चारों तरफ ख़ुशी का आलम,
कलियों पर मुस्कान सी छाई,
जैसे पूछ रहा था आंगन ,
बिटिया बरसों बाद तू आई,
कितना दे दें कितना कर दें,
दामन को खुशियों से भर दें,
मेरा सुख-दुःख बाँट रहे थे,
एक दूजे को डांट रहे थे,
एक बूँद भी आ ना पाये,
उसकी आँखों से अब पानी,
बरसों बाद लौट कर आई,
है जब मेरी बिटिया रानी,
उनके मन में ऐसे बसी थी,
जैसे तन में प्राण समाये,
फिर क्यों वहाँ ना पाये इज्जत,
जिनकी खातिर उम्र बिताये ?
- नीतू ठाकुर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-11-2017) को "नागफनी के फूल" (चर्चा अंक 2791) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
nice !
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