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बुधवार, 25 अक्टूबर 2017

सारे मौसम बदल गए शायद - अलीना इतरत

सारे मौसम बदल गए शायद 
और हम भी सँभल गए शायद 

झील को कर के माहताब सुपुर्द
अक्स पा कर बहल गए शायद

एक ठहराव आ गया कैसा 
ज़ाविए ही बदल गए शायद

अपनी लौ में तपा के हम ख़ुद को 
मोम बन कर पिघल गए शायद

काँपती लौ क़रार पाने लगी 
झोंके आ कर निकल गए शायद 

हम हवा से बचा रहे थे जिन्हें 
उन चराग़ों से जल गए शायद 

अब के बरसात में भी दिल ख़ुश है 
हिज्र के ख़ौफ़ टल गए शायद 

साफ़ होने लगे सभी मंज़र 
अश्क आँखों से ढल गए शायद 

बारिश-ए-संग जैसे बारिश-ए-गुल 
सारे पत्थर पिघल गए शायद

वो 'अलीना' बदल गया था बहुत 
इस लिए हम सँभल गए शायद 


  

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह !
    बहुत ख़ूब !
    शानदार प्रस्तुति।
    सरलता की अद्भुत शक्ति का मुज़ाहिरा करती एक वृहद् ग़ज़ल। हरेक शेर का अपना मिज़ाज ।

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (27-10-2017) को
    "डूबते हुए रवि को नमन" (चर्चा अंक 2770)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    छठ पूजा की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहद सुंदर रचना खूबसूरत अंदाज

    जवाब देंहटाएं

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