तनहा-तनहा रहता हूँ
दुनिया से मैं डरता हूँ
हर सू हैं काँटे बिखरे
डरता सा पग धरता हूँ
गलती कोई कब की है
लेकिन कारा सहता हूँ
निर्दोषी हूँ मैं बिल्कुल
सबसे कहता रहता हूँ
मुंसिफ बिकते पैसों में
पर मैं लब सी रखता हूँ
जितना ही बचना चाहूँ
उतने कोड़े सहता हूँ
जाने क्या है बात ख़लिश
ज़ल्द न फिर भी मरता हूँ.
बहर --- २२२२ २२२
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
जी बहुत सही बस चुप हो बैठिये...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना।
वाह !!! बहुत सुंदर
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