यहाँ एक और आवाज़ है जो
बाक़ी सुनी हुई आवाज़ों से अलग है,
हर सुनी हुई आवाज़ को पहचानती हूँ,
पर इस आवाज़ से अंजान हूँ,
ये आवाज़ है ख़ामोशी की आवाज़।
हाँ, ख़ामोशी की आवाज,
कोई अल्फाज़ नहीं हैं इसके
ना कोई आवाज़,
ऊपर से शांत होते हुए भी
भीतर ही भीतर कितनी आवाज़ें हैं इसकी
क्या ये धड़कनों की आवाज़ है
या मन मे चलते ख़्यालों की
या कुछ और जिन से मैं खुद भी अनजान हूँ।
पर ये जो ख़ामोशी की आवाज़ है,
शाम को सुनसान सड़क से आती
साँय साँय करते झीगुरों की आवाज़ों से,
अँधेरे के सन्नाटे को चीर कर आती
सियारों की हुआँ हुआँ की आवाज़ों से,
दूर से भौंकते कुत्तों की भौं भौं से,
भी कहीं ज़्यादा डरावनी होती हैं।
सुना है कि ख़ामोशी की इन
आवाज़ को हमें सुनना चाहिए,
मैं भी सुन रही हूँ, ख़ामोशी की आवाज़ों को
कोई भी आवाज़ साफ़ नहीं है।
कुछ आवाज़ों का पीछा करते
बड़ी दूर निकल जाती हूँ, और
फिर वो आवाज़ेंअँधेरे में कहीं
गुम जाती हैं, और मैं भी...
ऐसा कुछ वक़्त तक चलता है,
और फिर कोई आवाज़ मुझे
उजाले की दहलीज़ पर छोड़ जाती है -
बस मैं इस रात के मंज़र में
यूँ ही आवाज़ों के बीच खेल रही हूँ।
ये आवाज़ें कैसी हैं
जिन्हें मैं सुन रही हूँ नहीं पता
ये आवाज़ें ही हैं, या शोर है,
ख़ामोशी है, या सन्नाटा क्या है ये??
ये तो ज़ेहनी मिज़ाज़ ही तय करेगा मेरा
किसे क्या बनाना है,
पर ये आवाज़ें कभी बंद नहीं होंगी
और ना ही ख़त्म होंगी,
ये आती रहेंगी,
बस कभी धीमी हो जाएँगी,
तो कभी तेज़ आवाज में चीखेंगी चिल्लाएँगी,
कभी बाहर से आती आवाज़ों में,
तो कभी अंदर से आती ज़ेहनी आवाज़ों में।
- नेहा दुबे
बहुत ही बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ज़ज्बे और समर्पण का नाम मैरी कॉम : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक ३ दिसंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत सुन्दर 👌
जवाब देंहटाएंलाजवाब।
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत खूब!!
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