25 July 1883 -11 September 1922
पाठशाला
एक पाठशाला का वार्षिकोत्सव था. मैं भी वहां बुलाया गया था.
वहां के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र, जिसकी अवस्था
आठ वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था. उसका मुंह पीला था, आंखें सफ़ेद थीं,
दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी. प्रश्न पूछे जा रहे थे. उनका वह
उत्तर दे रहा था. धर्म के दस लक्षण सुना गया, नौ रसों के
उदाहरण दे गया. पानी के चार डिग्री के नीचे शीतलता में
फैल जाने के कारण और उससे मछलियों की प्राण-रक्षा
को समझा गया, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान दे गया,
अभाव को पदार्थ मानने, न मानने का शास्त्रार्थ कर गया
और इंग्लैंड के राजा आठवें हेनरी की स्त्रियों के नाम और
पेशवाओं का कुर्सीनामा सुना गया.
यह पूछा गया कि तू क्या करेगा? बालक ने सिखा-सिखाया उत्तर दिया कि मैं लोकसेवा करूंगा. सभा ‘वाह वाह’ करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था.
एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और कहा कि जो तू इनाम मांगे, वही दें. बालक कुछ सोचने लगा. पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें, यह पढ़ाई का पुतला
कौन-सी पुस्तक मांगता है.
बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था,
हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आंखों
में दिख रही थी. कुछ खांसकर, गला साफ़ कर नकली परदे के
हट जाने से स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा,’लड्डू!’
पिता और अध्यापक निराश हो गए. इतने समय तक मेरी सांस
घुट रही थी. अब मैंने सुख की सांस भरी. उन सब ने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था, पर बालक
बच गया. उसके बचने की आशा है, क्योंकि वह ‘लड्डू’ की
पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ
की आलमारी की सिर दुखाने वाली खड़खड़ाहट नहीं.
गालियां
एक गांव में बारात जीमने बैठी. उस समय स्त्रियां समधियों को गालियां गाती हैं, पर गालियां न गाई जाती देख नागरिक सुधारक बाराती को बड़ा हर्ष हुआ. वह ग्राम के एक वृद्ध से कह बैठा,”बड़ी खुशी की बात है कि आपके यहां इतनी तरक़्क़ी हो गई है."
बुड्ढा बोला, “हां साहब, तरक़्क़ी हो रही है. पहले गालियों में कहा
जाता था.. फलाने की फलानी के साथ और अमुक की अमुक के साथ.. लोग-लुगाई सुनते थे, हंस देते थे. अब घर-घर में वे ही बातें सच्ची
हो रही हैं. अब गालियां गाई जाती हैं तो चोरों की दाढ़ी में
तिनके निकलते हैं. तभी तो आंदोलन होते हैं कि गालियां
बंद करो, क्योंकि वे चुभती हैं."
भूगोल
शिक्षक को अपने इंस्पेक्टर के दौरे का भय हुआ और वह क्लास को भूगोल रटाने लगा. कहने लगा पृथ्वी गोल है. यदि इंस्पेक्टर पूछे कि पृथ्वी का आकार कैसा है और तुम्हें याद न हो तो मैं सुंघनी की डिबिया दिखाऊंगा, उसे देखकर उत्तर देना. वह डिबिया गोल थी.
इंस्पेक्टर ने आकर वही प्रश्न एक विद्यार्थी से किया और उसने बड़ी उत्कंठा से गुरु जी की ओर देखा. गुरु ने जेब में से डिबिया निकाली. भूल से चौकोर डिबिया निकल आई थी. लड़का बोला,
”बुधवार को पृथ्वी चौकोर होती है और बाक़ी सब दिन गोल."
-पण्डित चन्द्रधर शर्मा "गुलेरी"
उम्दा चयन
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कथाएं
जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार कथाएं
जवाब देंहटाएंआज भी ये कहानियां सामयिक हैं, बच्चों का बचपन छीनने के प्रयास वैसे ही जारी हैं !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (15-09-2018) को "हिंदी पर अभिमान कीजिए" (चर्चा अंक-3095) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हिन्दी दिवस की शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 15 सितम्बर 2018 को साझा की गई है.........https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचनाएं
जवाब देंहटाएंहास्य-व्यंग्य से छलकती इन लघु कथाओं का लेखक, क्या 'बुद्धू का काँटा' और 'उसने कहा था' जैसी अमर कथाएँ भी लिख सकता था?
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