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बुधवार, 27 जून 2018

बूढ़ी आंखें.....अनुराधा चौहान


परदेश में बसे हुए बच्चों की राह देखते हुए गांव में बसे बूढ़े मां-बाप के दर्द को कविता के द्वारा व्यक्त करने की कोशिश की है ।
बूढ़ी आंखों में आंसू
झुर्रियों से भरा चेहरा
मन के कोने में दबी आशा
पगडंडियों को निहारती आंखें

हर आहट बैचेन करती
शायद अब आए बच्चे मेरे
चारपाई पर बैठ यही सोचते
बीत रहे साल दर साल
बड़े जतन से था पाला
पूरी की थी हर ख्वाहिश
बुढ़ापे का बनेंगे सहारा
सोचकर भेजा था परदेश

वो घर से बाहर क्या निकले
बाहर की दुनिया में खो गए
अपनी गृहस्थी बसा कर वो
मां-बाप की दुनिया भूल गए

शायद वापस न आए तो
सोचकर मन घबरा जाए
बूढ़ी आंखों से छलक कर
आंसू गालों पर आ जाएं

-अनुराधा चौहान


13 टिप्‍पणियां:

  1. आज का यथार्थ पर वक्त की मांग है ये

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  2. सहज सरल शब्दों मे व्यथा, दूर जाकर फिर न आने वाले बच्चों के प्रति वृद्ध होते माता पिता का सूना होता संसार, बहुत सुंदर।

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  3. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पंचम दा - राहुल देव बर्मन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार। ।

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  4. वाह!!बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति ।

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  5. घर-घर की कहानी !
    काहे के माँ-बाप?
    काहे के दादी-नानी?

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