खाने की मेज से
रसोई तक,
रसोई से खाने की मेज तक
कितने ही फेरे ले चुकी वो,
याद नहीं..
चलते-चलते रुकती है बीच में
भूला सा कुछ याद दिलाने की
कोशिश में स्वयं को..
क्या ढूँढ रही थी???
सब्जी काटने का चाकू
या
अपना कोई भूला सपना??
कहाँ रख कर भूल गई???
नमक की शीशी
या
अपना अस्तित्त्व??
क्या लाने उठी थी??
पानी का गिलास
या
अपनी बची -खुची ताकत??
भूली सी खड़ी रहती है कुछ क्षण,
फिर पुकार पर किसी की
चल पड़ती है
सोचना भूल कर।
घूमती है उसी घेरे में,
ज़िंदगी के फेरे में..
-डॉ. शैलजा सक्सेना
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-03-2017) को "5 मार्च-मेरे पौत्र का जन्मदिवस" (चर्चा अंक-2901) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब
जवाब देंहटाएं