जग में मेरा अस्तित्व
तेरी पहचान है मां
भगवान से पहले तू है
भगवान के बाद भी तू ही है मां
मेरे सारे अच्छे संस्कारों का
उद्गम है तू मां
पर मेरी हर बुराई की
मै खुद दाई हूं मां
तूने तो सद्गुणों ही दिये
ओ मेरी मां
इस स्वार्थी संसार ने
सब स्वार्थ सीखा दिये मां।
ओ मेरी मां।
-कुसुम कोठरी।
बहुत खूब !!!
जवाब देंहटाएंस्नेह आभार सखी।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (27-04-2017) को "ग़म क्यों हमसाया है" (चर्चा अंक-2953) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक माँ अपने बच्चों को कभी बुराई नही सिखाती.
जवाब देंहटाएंसच्ची व वास्तविक रचना
बहुत सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंवाह!!!
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 30 अप्रैल 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कुसुम बहन -- एक माँ की पहचान बेटी ही तो होती है | सही मायने में बेटी माँ की ही परछाई समझी जाती है दोनों का अस्तित्व एक दुसरी से अभिन्न है | सस्नेह --
जवाब देंहटाएंसच, माँ ने ही तो अपना अंशदान कर गढ़ा,अस्तित्व दिया ! जमाने ने उस अस्तित्व को छीन लिया और अस्तित्वहीन कर दिया स्त्री जाति को !!!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना !