मंगलवार, 31 जुलाई 2018

आज 31 जुलाई विशेष - मुंशी-प्रेमचंद जयंती ....ब्लॉग समाज और हम...आकांक्षा सक्सेना

आज 31 जुलाई 
विशेष - मुंशी प्रेमचंद जयंती ....
(धनपत राय श्रीवास्तव)
ब्लॉग समाज और हम...आकांक्षा सक्सेना
से साभार

IMG_20180729_224531

Screenshot_2018-07-29-22-41-48-425_com.android.chrome

31 जुलाई विशेष - मुंशी-प्रेमचंद जयंती 
''एक प्रेरणा'' मुंशी प्रेमचंद का जीवन-

''लोग अंतिम समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।"
- मुँशी प्रेमचन्द 



IMG_20180729_230511

Screenshot_2018-07-29-22-56-50-262_com.android.chrome


मुंशी प्रेमचंद साहित्य के वह सूर्य हैं जो अपनी  रचना रश्मियों से सभी नवोदित साहित्यकारों का सही मार्गदर्शन करते रहे हैं। वह महान कहानीकार , उपन्यासकार रहे। मुंशी-प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक हैं।जो साहित्य की दुनिया में कलम के सिपाही के नाम से सुविख्यात हैं।जिनपर आज भी शोधकर्ता शोध कर रहे हैं। 

जन्म-

Screenshot_2018-07-29-23-29-23-944_com.android.chrome
प्रेमचन्द का जन्म 31जुलाई सन् 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। मुंशी प्रेमचंद का पूरा नाम धनपत राय श्रीवास्तव था उन्हें नवाब राय श्रीवास्तव के नाम से भी जाना जाता था। उनके पिता का नाम अजायब राय श्रीवास्तव व माता का नाम आनन्दी देवी श्रीवास्तव था। उनके पिता डाकमुंशी के तौर पर काम किया करते थे जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी।
जीवन-
Screenshot_2018-07-29-23-27-42-682_com.android.chrome

धनपतराय श्रीवास्तव जब महज 8 वर्ष के थे तब उनकी माता का  स्वर्गवास हो गया। माँ के गुजर जाने के बाद से वह  अपने जीवन में लगातार विषम परिस्थितियों का सामना करते रहे। धनपतराय के पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण वह माँ के प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी कभी ना पा सके। धनपतराय का जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए  दो कपड़े भी मुश्किल से होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का कुटिल व्यवहार भी नर्क के दर्शन कराने जैसा था।

धनपतराय श्रीवास्तव की विवाह-

Screenshot_2018-07-29-22-38-57-840_com.android.chrome

धनपतराय के पिता ने धनपतराय का महज 15साल की आयु में उनसे उम्र में बड़ी और बेहद बदसूरत और कड़वी जुबान की लड़की के साथ उनका विवाह करा दिया। 
धनपतराय ने स्वयं लिखा हैं, "उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।......." उसके साथ - साथ जबान की भी मीठी न थी। धनपतराय ने अपनी शादी के फैसले पर पिता को लिखा "पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया। मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।" बाद में उनके पिताजी को इस बात का बेहद अफसोस हुआ ।
धनपतराय के विवाह के एक साल बाद ही उनके पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक उनके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया और उन्हें एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में उनकी सौतेली माँ, पत्नी दो बच्चे और स्वयं। धनपतराय श्रीवास्तव यानि प्रेमचंद की आर्थिक परेशानियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट तक बेचना पड़ा। एक दिन हालत यह हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को बेचने के लिए  एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने धनपतराय श्रीवास्तव को अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त कर लिया।
शिक्षा-
IMG_20180729_224249

धनपतराय अपनी गरीबी से लड़ते हुए अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक ही पूरी कर सके। शिक्षा के लिये धनपतराय अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया।उन्हें आगें पढ़ने का बहुत शौक था वह वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी रूपी डायन  उनके सपनों को लील गयी। स्कूल आने - जाने के झंझट से बचने के लिए वह एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन  पढ़ाने लगे और उन्हीं के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे।  इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में वह मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर सके।
साहित्यिक रुचि - 

Screenshot_2018-07-29-22-43-45-122_com.android.chrome

गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी धनपतराय के साहित्य के प्रति अनुराग को रोक न सकीं। धनपतराय जब मिडिल में थे तभी से उन्होंने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था ।उन्हें बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर हिंदी और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब उपन्यास पढ़ गये। आपने दो - तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों उपन्यास पढ़ डाले। हद तो तब हो गयी जब उपन्यास पढ़ने की ललक ने उन्होंने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती तक कर ली थी और उसकी दुकान पर मौजूद "तिलस्मे - होशरुबा" पढ़ डाली। उन्होंने अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तर्जुमा को उन्होंने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। उन्होंने अपना लेखन कार्य “जमाना प‍त्रि‍का” से शुरू किया था। और फिर उन्होंने अपनी कलम उठायी तो पलट कर न देखा।
उन्होंने तेरह वर्ष की उम्र से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह धनपतराय का साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ - साथ रहा।
प्रेमचन्द की दूसरी शादी



Screenshot_2018-07-29-22-41-48-425_com.android.chrome


सन् 1905 में धनपतराय की पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण उन्हें छोड़कर चली गई फिर वह कभी नहीं आई। इस सम्बंध विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन् 1905 के अन्तिम दिनों में उन्होंने बालबिधवा शीवरानी देवी से शादी कर ली। गौरतलब होकि धनपतराय उर्फ प्रेमचंद विधवा नारियों के बहुत हितैषी थे।
यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् उनकी  परिस्थितियां बदलीं और आर्थिक तंगी कम हुई। उनके लेखन में अधिक सजगता आई। जल्द पदोन्नति के साथ ही उन्हें स्कूलों का डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिया गया। इसी खुशहाली में उनकी पाँच कहानियों का संग्रह ''सोजे वतन'' प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।

व्यक्तित्व-
Screenshot_2018-07-29-23-31-07-535_com.android.chrome

धनपतराय उर्फ प्रेमचंद श्रीवास्तव सादा जीवन हसौड स्वभाव के मालिक थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा था "हमारा काम तो केवल खेलना है- खूब दिल लगाकर खेलना- खूब जी- तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात् - पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, "तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।" कहा जाता है कि प्रेमचन्द विकट परिस्थितियों से घिरे होने के बावजूद भी हँसमुख और उदार थे।यह कोई साधारण बात नही। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, उदारता की वह एक प्रतिमूर्ति थे।उनका जीवन लोगों के लिए किसी प्रेरणा से कम न था।

Screenshot_2018-07-29-23-30-42-363_com.android.chrome
    जहां उनके हृदय में अपने इष्ट मित्रों के लिए सम्मान और उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी ने लिखा हैं "कि जाड़े के दिनों में चालीस - चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।"

Screenshot_2018-07-29-23-41-59-626_com.android.chrome

    प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे या कहें कि समाज के सच्चे नायक थे। उन्हें ग्रामीण जीवन और ग्रामीण रहन-सहन से बहुत प्रेम था।उनके जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही बिताया। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले कलम के सिपाही प्रेमचन्द अंतस की जीवनी-शक्ति के मालिक थे। जो उनसे मिला वह प्रभावित हुआ। वह आडम्बर एवं दिखावा के सख्त विरोधी थे। जीवन में उन्हें न  विलास मिला और न ही उन्हें इसकी तमन्ना थी। एक सरल व सभ्य व्यक्ति की तरह वह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।

ईश्वर से तकरार -
IMG_20180729_232836

 प्रेमचंद अपने जीवन की विषमताओं के कदम - कदम पर जहरीले घूँट पीने के कारण वह कभी भी ईश्वर के प्रति आस्थावादी नहीं बन सके। उनकी मन ही मन ईश्वर से अजीब सी तकरार जारी रही। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा "तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो - जा रहीं रहे पक्के भगत बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।"
मृत्यु के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था - "जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।"

प्रेमचन्द की कृतियाँ-

IMG_20180729_225954

IMG_20180729_230029

प्रेमचन्द ने अपने दूर के नाते के मामा के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। 13 साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साहित्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् 1894 ई० में "होनहार बिरवार के चिकने-चिकने पात" नामक नाटक की रचना की। सन् 1898 में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय "रुठी रानी" नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन 1902 में प्रेमा। उनकी पहली कहानी “सौत” थी जो सरस्‍वती नामक पत्रि‍का में 1915 में प्रकाशित हुई थी। सन् 1905 में ही "हम खुर्मा व हम सवाब" नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा-जीवन और विधवा-समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।

Screenshot_2018-07-29-23-25-35-080_com.android.chrome

     जब कुछ आर्थिक निर्जिंश्चतता आई तो इसी 1905 में ही पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द अपना नाम धनपतराय न लिखकर नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय लेखक की खोज शुरु हुई। नायाबराय यानि धनपतराय श्रीवास्तव पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन उनके सामने ही उनकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का उनपर कठोक प्रतिबंध लगा दिया गया।


IMG_20180729_223836
इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार उन्हें उनका नया नाम प्रेमचन्द सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए ''मुंशी प्रेमचन्द'' हो गये।
"सेवा सदन", "मिल मजदूर" तथा 1935 में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र उपन्यास अधूरा ही रह गया।प्रेमचंद अपने पीछे अपनी तीन  होनहार संताने छोड़ गये श्रीपत राय श्रीवास्तव 2. अमृत राय श्रीवास्तव 3. कमला देवी श्रीवास्तव जिनमें उनका अधूरा उपन्यास मंगलसूत्र उनके निधन के बाद उनके पुत्र अमृृत राय द्वारा पूरा किया गया। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए "महाजनी सभ्यता" नाम से एक लेख भी लिखा था जो बहुत चर्चित हुआ।मुंशी प्रेमचंद की याद में भारतीय डाक विभाग ने 31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मदिन के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया। बाद में प्रेमचंद जी के पुत्र अमृत राय ने अपने पिता की जीवनी “कलम का सिपाही” के नाम से लिखी थी। उनकी चर्चित रचनायें निम्न हैं-
  • गोदान (Godan)
  • निर्मला (Nirmala)
  • कफ़न (kafan)
  • ईदगाह (Idgaah)
  • सेवासदन (Sewasdn)
  • शतरंज के खिलाड़ी (shatranj ke khiladi)
  • पूस की रात (Poos ki raat)
  • दो बैलों की कथा (Do belon ki katha)
  • प्रेमाश्रम (Premasrm)
  • नमक का दरोगा (Namak ka daroga)
  • पंच परमेश्वर (Panch Parmeshwar)

अंतिम श्वांस - 



Screenshot_2018-07-29-22-55-32-292_com.android.chrome


सन् 1936 ई० में विद्या की देवी माँ सरस्वती का यह पुत्र प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। इस लम्बी बीमारी से पीड़ित वक्त में भी आपने "प्रगतिशील लेखक संघ" की स्थापना में पूर्ण सहयोग दिया और आर्थिक संकट तथा सही समय पर सही इलाज  न मिल पाने  के कारण 8 अक्टूबर 1936 में इस कलम के सिपाही, साहित्य के दिग्गज अपनी आखरी श्वांस ले इस बोझल दुनिया से निकल कर अपने ही साहित्य शब्दों में अमर हो गये।

IMG_20180729_234406

हिन्दी के महान हस्ताक्षर सम्मानीय शख्सियत 

मुंशी प्रेमचंद जी को शत् शत् नमन 




10 टिप्‍पणियां:

  1. शुभ प्रभात उम्दा संकलन नमन है साहित्य के चमकते सितारे को

    जवाब देंहटाएं
  2. आज की इस विशेष प्रस्तुति के माध्यम से आ.प्रेमचंद को श्रद्धांजली देने का कार्य हलचल मंच ही बखूबी कर सकता है। हमें गर्व है अपनी धरोहर पर ...
    सादर सुप्रभात....
    आ.प्रेमचंद को भावभीनी श्रद्धांजली

    जवाब देंहटाएं
  3. शानदार प्रस्तुति, महान विभूती, साहित्य का न अस्त होने वाला सूर्य मुंशी प्रेमचंद शत शत नमन ।

    युग प्रवर्तक साहित्य शिरोमणि
    मुंशी प्रेमचंद।
    अगर आपके पास थोडा भी हृदय है तो क्या मजाल की मुंशी जी की कृतियां आपकी आंखे ना भिगो पाये, जीवन की विविध रूपों के हर पहलूओं पर उन्होंने जो चित्र उकेरे हैं वो विलक्षण है ।
    कथा उपन्यासों को मनोरंजन,तिलिस्म और फंतासी से बाहर निकाल सीधे यथार्थ के धरातल पर खडा कर दिया यथार्थ भी ऐसा जिससे आभिजात्य कहलाने वाला वर्ग अन्जान था या कन्नी काट रहा था, उनकी रचनाओं मे दर्द ऐसे उभर कर आता है कि सारे बदन मे सिहरन भर देता है, इस कठोर सत्य पढने मे भी उकताहट कहीं हावी नही होती रोचकता से प्रवाह मे बहता लेखन सहज व्यंग और हल्का हास का पुट पाठक को बांधे रखता है,
    उन्होने आम व्यक्ति की समस्याओं भावनाओं और परिस्थितियों का इतना मार्मिक वर्णन किया है कि यह कह सकते हैं उनका साहित्य संसार हिन्दुस्तान के सबसे विशाल तबके का का संसार है।
    प्रेम चंद का साहित्य का महत्व भारत मे ही नही विदेशों मे भी समादृत है।

    जवाब देंहटाएं
  4. 🙏नमन कालजई कवि को
    उनकी हर रचना ..कथा काव्य कहानी में ...समाज की तस्वीर नजर आती है और सहज हृदय ग्राह्य होती है ...ऐसे महान कवि के व्यक्तित्व का अनोखा वर्णन ये हमारा यही मंच कर सकता है ...इस विस्तृत जानकारी के लिये स्नेहिल आभार ..🙏

    जवाब देंहटाएं
  5. इन जैसी महान हस्तियों की जानकारी नई पीढ़ी को जरूर होनी चाहिए,,,,,,,,,,,,पर कैसे ? यह सोचनीय प्रश्न है !

    जवाब देंहटाएं
  6. शत् शत् नमन
    जैसी महान हस्तियों की जानकारी - https://newsup2date.com

    जवाब देंहटाएं