मूक होकर मौन धारण करूँ कब तक,
लाली लायी अब अरुण फिर
बन गया है वीर काफ़िर
मैँ बनूँ काफ़िर कब तक;
डर है तुमको झँझावातोँ से
डर है मुझको सूनी रातोँ से
औँधे कटोरे के सितारे
मैँ तो गिनता रहूँ कब तक;
तुम अभी कोमल प्रवाहिनी हो
किंतु मेरे मन मन्दिर की रागिनी हो
हाथ मेँ वीणा लिये मैँ
तेरी प्रतिक्षा करूँ कब तक।
मूक होकर मौन धारण करूँ कब तक .
-चन्द्र किशोर प्रसाद
डर है तुमको झँझावातोँ से
जवाब देंहटाएंडर है मुझको सूनी रातोँ से
औँधे कटोरे के सितारे
मैँ तो गिनता रहूँ कब तक;
बहुत ही सुंदर पंक्तियाँ। अगर रचना और थोड़ी लम्बी होती तथा विवरण व विश्लेषण और ज्यादा होता तो और भी अच्छा होता। सादर।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-02-2017) को "नागिन इतनी ख़ूबसूरत होती है क्या" (चर्चा अंक-2894) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'