घनी धुंध और कोहरा,थर थर काँपे गात।
काटे से कटती नहीं,यह जाड़े की रात।।
किसने घट ये शीत का, दिया रात में फोड़।
नदिया पर्वत झील सब, सोए कुहरा ओढ़।।
चौपाले सूनी पड़ी, 'धूनी' 'बाले' कौन।
सर्द हवा से हो गए, रिश्ते-नाते मौन।।
गज भर की है गोदड़ी, कैसे काटें रात।
आग जला करते रहे, 'होरी' 'गोबर' बात।।
छोड़ रजाई अब उठो, सी-सी करो न जाप।
आओ खिलती धूप से, ले लो थोड़ा ताप।।
दिन भर किरणों ने लिखे, मधुर धूप के छंद।
स्याही फेरी साँझ ने, किया तमस में बंद ।।
आज कुनकुनी धूप में, कुछ पल बैठे साथ।
रिश्तों को दे उष्णता, ले हाथों में हाथ ।।
धूप अलगनी पर टंगी, घर-घर घूमे शीत ।
चुन्नू-मुन्नू को हुई, अब चूल्हे से प्रीत ।।
वाह कुमुदिनी धन्य तू, धन्य तिहारी प्रीत।
देकर उष्मा मीत को, खुद सहती है शीत ।।
-टीकम चन्दर ढोडरिया*
वाहहह...
जवाब देंहटाएंसोलह आने सच...
बेहतरीन दोहे...
सादर....
बहुत सुन्दर ढोडरिया जी, आप की कविता ने सारा आलस्य ख़त्म कर हमको उठने के लिए मजबूर कर दिया. लेकिन हम इस कुल्फ़ी जमाने वाले माहौल में स्नान भी करें, इसके लिए आप से ऐसी एक और सुन्दर कविता की अपेक्षा है.
जवाब देंहटाएंलाजवाब रचना
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
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