रविवार, 24 जून 2018

बीजांकुर....कुसुम कोठारी

जलधर भार से नीचे झुके
चंचल हवा ने आंचल छेड़ा
अमृत बरसा तृषित धरा पर
माटी विभोर हो सरसी हुलसी
हृदय तल मे जो बीज थे रखे
उन्हें प्यार से सींचा स्नेह दिया
क्षिती दरक ने लगी अति नेह से
एक बीजांकुर प्रस्फुटित हुवा
सहमा सा रेख से बाहर झांके
खुश हो अंगड़ाई ली देखा उसने
चारों और उसके जैसे नन्हे नरम,
कोमल नव पल्लव चहक रहे
धरित्री की गोद पर खेल रहे
पवन झकोरों पर झूल रहे
  अंकुर  मे  स्फुरणा जगी
अंतः प्रेरणा लिये बढता गया।

सच ही है धरा को चीर अंकुर
जब पाता उत्थान है
तभी मिलता मानव को
जीवन का वरदान
सींचता वारिध उस को
कितने प्यार से
पोषती वसुंधरा , करती
उसका श्रृंगार है
एक अंकुर के खिलने से
खिलता संसार है।
-कुसुम कोठारी

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-06-2018) को "उपहार" (चर्चा अंक-3012) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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    1. सादर आभार आदरणीया मेरी रचना को चुनने के लिये मै लिंक पर उपस्थित रहूंगी।

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