बुधवार, 7 फ़रवरी 2018

पहाड़ी नदी के बारे में,,,,,सुशील कुमार


अपनी बाँहों में
कलसियाँ
होठों पर
वीरानियों से सनी
घिर आयी साँझ की
कोई विदागीत
गुनगुनाती पहाड़न
उस बूढ़ी नदी के
सीने पर
छोटी-छोटी
कटोरियाँ
बनाती है
रेत से
रेत को
अलग करके ।

क्षण में उस वृद्धा के
विलाप से
कटोरियों का तल
पसीज जाता है
और अँजुरी समाने भर
पारभासी नीर
पात्र में
थिराने लगता है
पहाड़न
उलीच-उलीच कर उसे
वियोगिनी नदी माता के
आँचल में
डाल देती है
यज्ञ के अनल-कुंड में
पूजित भाव से प्रक्षेपित
हव्य की तरह।
तब स्नेहिल
वात्सल्य का
स्वच्छ
पारदर्शी
प्रशांत जल
पात्र में
ठहरने लगता है और
पहाड़न का रूप,
नदी का अर्थ उसमें
गोचर होने लगता है ।
पहाड़ की मिट्टी से बनी
कलसियों में
पहाड़ का दुःख
नदी का ममत्व भरकर

वरह की कोई पहाड़ी गीत
फिर गुनगुनाती,
अंधेरे होते
अपने गेहों को
लौटती पहाड़न के
पदचाप
और स्वर
तब सिर्फ़
नदी और पहाड़ ही
सुन पाते हैं
उस सुनसान दयार में।

-सुशील कुमार

3 टिप्‍पणियां: