उषा ने सुरमई शैया से
अपने सिंदूरी पांव उतारे
पायल छनकी
बिखरे सुनहरी किरणों के घुंघरू
फैल गये अम्बर मे
उस क्षोर से क्षितिज तक
मचल उठे धरा से मिलने
दौड़ चले आतुर हो
खेलते पत्तियों से
कुछ पल द्रुम दलों पर ठहरे
श्वेत ओस को
इंद्रधनुषी बाना पहना चले
नदियों की कल कल मे
स्नान कर पानी मे रंग घोलते
लाजवन्ती को होले से
छूते प्यार से
अरविंद मे नव जीवन का
संदेश देते
कलियों फूलों मे
लुभावने रंग भरते
हल्की बरसती झरनों की
फुहारों पर इंद्रधनुष रचते
छन्न से धरा का
आलिंगन करते,
जन जीवन को
नई हलचल देते
सारे विश्व पर अपनी
आभा छिटकाते
सुनहरी किरणों के घुंघरू।
-कुसुम कोठारी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-02-2017) को "दिवस बढ़े हैं शीत घटा है" (चर्चा अंक-2882) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'