शाखों ने बाँधी
पातों की झाँझर तो
हवायें बोलीं।
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पाखी गुंजाये
हवाओं में संगीत
बासंती गीत।
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ठंडे सवेरे
रातों को बिछा के
रातें थीं सोयीं ।
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गुलमोहर
तुम्हारी ललाई से
बसंत आया।
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सवेरा जागा
सूर्य सा मन मेरा
धूप सा भागा।
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राज खोलती
कुछ ख़ामोशियाँ भी
रहें बोलतीं।
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सर्दी की भोर
अलाव सूरज पे
धूप तापती।
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मीठे संवाद
चिड़ियों के खोये तो
जंगल रोये।
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मैल साँझ की
मटमैली करती
देह नभ की।
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धूप किरणें
घास पर बुनती
हरी सी दरी।
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सूखी है डाल
तितली - भँवरों का
बुरा है हाल।
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नभ के माथे
सूरज का झूमर
रोशन धूप।
-डॉ. सरस्वती माथुर
गज़ब..बेहद उम्दा👌👌
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (01-02-2018) को "बदल गये हैं ढंग" (चर्चा अंक-2866) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह सुंदर हाइकु प्रकृति और हाइकु वैसे भी पूरक हैं उस पर लाजवाब संयोजन।
जवाब देंहटाएंबधाई।
वाह!!!
जवाब देंहटाएंलाजवाब...
वाह!!बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंउम्दा👌👌
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